दीवारों से कान लगाकर बैठे हो - ग़ज़ल - डॉ॰ राकेश जोशी

दीवारों से कान लगाकर बैठे हो - ग़ज़ल - डॉ॰ राकेश जोशी | Ghazal - Deewaaron Se Kaan Lagakar Baithe Ho. Dr Rakesh Joshi Ghazal
अरकान : फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा
तक़ती : 22  22  22  22  22  2

दीवारों से कान लगाकर बैठे हो, 
पहरे पर दरबान लगाकर बैठे हो। 

इससे ज़्यादा क्या बेचोगे दुनिया को, 
सारा तो सामान लगाकर बैठे हो। 

दुःख में डूबी आवाज़ें न सुन पाए, 
ऐसा भी क्या ध्यान लगाकर बैठे हो। 

बेच रहा हूँ मैं तो अपने कुछ सपने, 
तुम तो संविधान लगाकर बैठे हो। 

हमने तो गिन डाले हैं टूटे वादे, 
तुम केवल अनुमान लगाकर बैठे हो। 

अपने घर के दरवाज़े की तख़्ती पर, 
अपनी झूठी शान लगाकर बैठे हो। 

ख़ूब अँधेरे में डूबे इन लोगों से, 
सूरज का अरमान लगाकर बैठे हो। 

जूझ रही है कठिन सवालों से दुनिया, 
तुम अब भी आसान लगाकर बैठे हो। 

कितने अच्छे हो तुम अपने बाहर से, 
अच्छा-सा इंसान लगाकर बैठे हो। 

डॉ॰ राकेश जोशी - देहरादून (उत्तराखंड)

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