सुन!
कल रविवार है,
बेफ़िक्री से खेलेंगे
समय की बंदिशें दूर रख देंगे
सुबह जल्दी आना।
एक छोटी लेकिन महत्वपूर्ण
योजना बनाते थे हम,
मनपसंद दिन का बेसब्री से
इंतजार करते थे हम।
फिर,
नियत समय, नियत स्थान पर
चिंतामुक्त एकत्र होकर सभी
एक के बाद एक खेल का
भरपूर लुत्फ़ उठाते थे हम।
यदि मौसम का मिज़ाज
बिगड़ जाता कभी तो
अरमानों पर पानी फिरने
का दंश झेलते थे हम।
न भूख, न प्यास की चिंता
बस अपने मिशन में मगन
रहा करते थे हम।
एक ही टिफ़िन से
थोड़ा-थोड़ा खा लेते थे हम।
एक ही फल में एक एक बाइट
ले लेते थे हम।
अब जो 'शेयरिंग का फंडा'
बच्चों को सिखाया जाता है
वह बिना सिखाए सीख जाते थे हम।
पूरे दिन मस्ती के बाद
शाम को घर लौटते थे हम।
पिताजी का चिर परिचित प्रश्न होता कि
आज का दिन कैसा रहा?
हम लोग मुस्कुरा कर कहते
पिताजी बहुत अच्छा,
और फिर अगले रविवार के
इंतज़ार में मशग़ूल हो जाते।
रविवार अब भी आता है,
न मनपसंद करने के लिए,
न छुट्टी मनाने के लिए,
घर के सप्ताह भर के
अधूरे कार्य संपन्न करने के लिए,
घर की जरूरतों में
ख़ुद को ख़र्च करने के लिए,
हमारा फ़र्ज़ बताने के लिए।
रविवार तो आता है
परंतु,
पहले वाला अल्हड़ और मासूम
रविवार अब नहीं आता।
राजेश 'राज' - कन्नौज (उत्तर प्रदेश)