ख़्वाब - कविता - विजय कुमार सिन्हा

अब ख़्वाबों की क्या कहें
ये अपने तो होते नहीं
पर नज़रों में सदा बने रहते हैं।
बेगानी और बेदर्द ज़माने में
सदा रंगीन सपने सँजोए रहते हैं।
पत्तों के खड़कने से भी
दिल की धड़कन बढ़ जाती है
और पास ना होते हुए भी
वह पास होने का अहसास करा जाते हैं।
कमबख़्त! कमबख़्त ये ख़्वाब!
ना जाने कितने सुनहरे सपने दिखाते हैं।
और हरेक सपनों के बाद पुराने
ज़ख़्म हरे कर जाते हैं।
पर ख़्वाबों की शिकायत करें भी तो तो कैसे?
क्योंकि यही तो है जो टूटने के बाद 
फिर से जीना सिखाते हैं।
ये अपने तो होते नहीं
पर नज़रों में सदा बने रहते हैं।


साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिये हर रोज साहित्य से जुड़ी Videos