जब से तेरी लगन लगी है कुछ भी और नहीं भाता।
भाना तो अब दूर जगत से टूट गया झूठा नाता॥
रोम-रोम में हुलक मारती पुलक न जाने क्या कर दे।
एक झलक की चाह लिए यह ललक न जाने क्या कर दे॥
जब-जब मैं तुझमें डूबा हूँ क्षण भंगुरता भूल गया।
प्रकृति सामने रही और मैं हर सुन्दरता भूल गया॥
ऐसा रमा कि द्वैत स्वयं अद्वैत दिखाई देता है।
महासिन्धु में उठी लहर सा वैत दिखाई देता है॥
मुझको तुझमें मैं दिखता है, तू मेरी रग-रग में है।
लगता है दो नहीं एक ही सत्ता इस जग मग में है॥
तेरी पूजा मैं करता हूँ वह मेरी ही पूजा है।
सच कह दूँ ब्रह्माण्ड काण्ड में अपने सिवा न दूजा है॥
इसीलिए मैं आत्ममुग्ध हो अपने पर इतराता हूँ।
जीवित मोक्ष पा लिया मैंने बार-बार बल खाता हूँ॥
अब चाहे अल मस्त कहे जग अस्त कहे या पस्त कहे।
ध्वस्त कहे आश्वस्त कहे विश्वस्त कहे या त्रस्त कहे॥
मैं भी मैं हूँ तू भी मैं हूँ वह भी मैं के अन्दर है।
मैं में असत् जगत की माया, माया कितनी सुन्दर है॥
गिरेंद्र सिंह भदौरिया 'प्राण' - इन्दौर (मध्यप्रदेश)