एक अज्ञात चिंता - कविता - प्रवीन 'पथिक'

जब भी तुम्हे ढूॅंढ़ने की कोशिश करता हूॅं!
भूल जाता हूॅं,
ख़ुद में ही।
एक अज्ञात चिंता, 
मन पर हावी होने लगती।
इस संसार से,
दूर जाना चाहता हूॅं।
बहुत दूर
जहाॅं संसार; प्रश्न दृष्टि से देख न सके।
भावनाएँ; विचारों पर हावी होने लगती हैं।
और मस्तिष्क
पिंजरे में बंद पक्षी की तरह,
छटपटाने लगता है।
सुदूर किसी पहाड़ी के शीर्ष पर;
समाधिस्थ योगी की,
कुटिया दिखाई देती है।
जो मन को खींच लेती है।
उसमें अपना भवितव्य, 
साफ़-साफ़ देखा जा सकता है।
तब चित्त शांत हो;
टिक जाता है उसी बिंदु पर,
जहाॅं एक घना अँधेरा दिखाई देता है ।
और मन का अंधड़,
धीरे-धीरे रुक सा जाता है।


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