ख़ुद - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी

है हमारा क्या जहाँ में
इस जहाँ में हम जो ठहरे,
हो भला क्यों न ऐसा
ख़ुद में हम कम जो ठहरे।

ख़ुद से ख़ुद की दूरियाँ
हो सकी हैं तय न अबतक,
बस दूजे तक सीमित रहे हैं
हासिल हुआ है जय न अबतक।

ख़ुद को ख़ुद पर खर्चने का
हुनर अभी आया नहीं है,
ग़लतफ़हमी पाल ली है
के कोई पराया नहीं है।

ख़ुद को ख़ुद पर खर्च कर के
अपव्ययी कहलाना चाहूँ,
ख़ुद को ख़ुद से मिलाकर
मितव्ययी कहलाना चाहूँ।

मौन होकर मूक सा मैं
ख़ुद से ख़ुद की बात करता,
है भला कौन जग में
जो ख़ुद के ख़ातिर ख़ुद है मरता।

जोड़कर ख़्वाबों को अपने
इक नया रस्ता बनाया,
ख़ुद को है महँगा बनाया
शौक को सस्ता बनाया।

अब जियूँगा ख़ुद के ख़ातिर
ख़ुद-ब-ख़ुद ख़ुद से कहा है,
आख़िर मेरा भी तो मुझसे
इक पुराना रिश्ता रहा है।

ख़ुद से ख़ुद की ख़ामियों को
इक न इक दिन ढूँढ़ लूँगा,
अब तो हूँ ना मैं मुक़म्मल
ख़ुद ही ख़ुद से पूछ लूँगा।

सिद्धार्थ गोरखपुरी - गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)

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