भोर - कविता - गिरेन्द्र सिंह भदौरिया 'प्राण'

मुर्गे बाँग दे उठे तन कर, होने लगी विदाई तम की। 
मन्दस्मित मुस्कान उषा की, गगन भेदती झिलमिल चमकी॥ 

पूर्व दिशा से भुवन भास्कर, धीरे-धीरे उतर रहे हैं। 
तालाबों में ‌‌रंग बिरंगे, उठे कमलदल सँवर रहे हैं॥ 

छाने लगी अरुणिमा नभ में, लाल-लाल हो उठा आवरण। 
सजने लगी प्रकृति दुल्हन सी, नव किरणों का हुआ अवतरण॥ 

स्वर्णिम व्योम ताम्र धरती पर, जादू टोना होता लगता। 
सिन्धु नदी तालाब पोखरों, का निर्मल जल सोना लगता॥ 

दण्ड लगाने लगे मल्ल सब, करने लगा योग हर योगी। 
साधु-साधु कर उठे तपस्वी, शान्ति पा उठा मन में रोगी॥ 

कसने लगी डोर ढोलक की, तबले पर जम गए तबलची। 
वाद्य लिए गा उठे प्रभाती, गायक राग-विराग नकलची॥ 

कसने लगे किसान रस्सियाँ, पशुओं को दे दाना-पानी। 
गाएँ दुहने लगा दूधिया, करने लगे बाल मनमानी॥ 

जीव-जगत ने आलस त्यागा, कलरव करने लगे पंखधर। 
घर-घर होने लगी आरती, घंटी बजने लगी शंख धर॥ 

माताएँ हो उठीं वत्सला, पिता हुए पाषाण सरीखे। 
डोल उठी बटुकों की टोली, कुछ अनुभव अनुभव से सीखे॥ 

धवल कीर्त मणियों की माला, हिमशिखरों के कण्ठ टंँग गई। 
घाटी हुई मनोरम गहरी, अपने रँग में स्वयं रँग गई॥ 

चमक उठी फूलों पत्तों पर तुहिन कणों की मुक्ता मणियाँ। 
सुन्दरता हो उठी सुनहरी, जुड़ने लगी नियति की कड़ियाँ॥ 

वन-उपवन हो उठे रँगीले, पथिक मद मस्त कर दिया। 
कली-कली हो उठी प्रफुल्लित, भँवरों को अति व्यस्त कर दिया॥ 

शीतल मन्द सुगन्ध पवन के, झोंके चले लहर मदिराई। 
नई चेतना मिली 'प्राण' को, भोर सुहानी होकर आई॥ 

गिरेंद्र सिंह भदौरिया 'प्राण' - इन्दौर (मध्यप्रदेश)

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