हर पल के अन्तराल में तुम हो - कविता - डॉ॰ नेत्रपाल मलिक

अलार्म की आवाज़ 
दे जाती है हर दिन
मुट्ठीभर पल ख़र्चने को
घड़ी की सुइयाँ उठा लेती हैं बही-खाता
हर पल का हिसाब रखने को

भाप बन उड़ जाते हैं कुछ पल, चूल्हे की आग में
बह जाते हैं कुछ पल, पानी के टब से
फिजूलखर्ची करा देता है कुछ पलों की
ऑफ़िस का बॉस, बेनतीजा बातों में
छीन लेती है कुछ पल, भीड़ की आपा-धापी
चुक जाते हैं कुछ पल,
पड़ौसी के दिए पलों की उधारी में
और
माँग लेता है कुछ पल,
सहकर्मी उधार

मेरे समय के बही-खाते में
दर्ज़ नहीं है कहीं भी तुम्हारा नाम
फिर भी
हर पल के अन्तराल में तुम हो।


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