मुस्कुराइए कि आप लखनऊ में हैं - कविता - डॉ॰ अबू होरैरा

मुस्कुराइए कि आप लखनऊ में हैं।
मैं भी मुस्कुराते हुए...
लखनऊ की ऊँची इमारतों को, 
शॉपिंग मॉल्स को,
तारीख़ी इमारतों को और
लखनऊ की विरासत को देख रहा था;
सहसा ठोकर लगी।
लाचार, बेबस, मैला-कुचैला और
फटा कपड़ा पहने नन्हा बच्चा...
जिसे दर-बदर भटकते देखा,
चाय के प्यालों की बची चाय को चाटते देखा,
अन्न के लिए लड़ते देखा,
भूख से तड़पते देखा,
फूटपाथ पर बेख़बर सोते देखा,
रौंदने वाले अमीरज़ादों को देखा,
दम तोड़ती मानवीयता को देखा,
निरंकुश तानाशाहों को देखा।
ठहरिए ज़रा,
ये केवल लखनऊ नहीं है;
बल्कि आपके शहर में भी लखनऊ है।

डॉ॰ अबू होरैरा - हैदराबाद (तेलंगाना)

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