आर्तनाद - कविता - प्रवीन 'पथिक'

जब भी अतीत को देखता हूँ!
एक भयानक यथार्थ;
खड़ा हो जाता मेरे समक्ष।
बड़ी भुजाऍं, बड़ी-बड़ी ऑंखें, 
और लपलपाती रक्तिम जिह्वा लिए;
घूरा करता है दिन रात।
हृदय में एक कचोट,
छिल देती मस्तिष्क के उर को।
जो कितनी स्मृतियों को–
समोयी है अपनी ऑंखों में।
अतीत की मधुर स्मृतियाॅं,
ख़ौफ़ का भयानक मंज़र लिए;
चीर देती अभिव्यक्ति के सीने को।
और
एक घना अँधेरा,
आच्छादित हो जाता पूर्ण जीवन पर।
इस तरह, निराशा का गुब्बार
अश्रुपूरित बादलों की तरह,
ढक लेता प्रारब्ध को;
औ भर देता उसे
आत्मग्लानि, कुंठा और नैराश्य से।
जहाॅं,
मेरी अकेली आत्मा
ख़ामोशी की चादर में सिर ढक कर,
करती है आर्तनाद
अनवरत्।


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