दुःख एक सोच - कविता - युगलकिशोर तिवारी

मैं दुःख हूँ पीड़ा, चिन्ता, कष्ट न जाने मेरे कितने रूप हूँ,
कभी मन से, कभी तन से, कभी धन से स्वरूप हूँ।
ये तुम्हारी सोच है कि मैं कुरुप हूँ,
मैं तो कर्मो से बंधा एक सुन्दर स्वरूप हूँ।
जैसा बोओगे वैसा पाओगे इसका फल स्वरूप हूँ।
हाँ मैं जीवन चक्र का आईना ज़रूर हूँ।

कभी किसी सोच में कभी खोट में कभी चोट में,
दीनता से जलते मन में,
मन से तन में ईर्ष्या जलन में,
दुःख का कारण बन जाता हूँ जीवन मेंं।
जग कहता मुझे मैं अभावों में हूँ,
मैं अभाव में नहीं भावों के अभाव में हूँ।
मैं ही सुख का कारण हूँ कुकर्मों का निवारण हूँ,
सुकर्मों का कारण हूँ विनम्रता का पारण हूँ।
सुख दुःख सम है आता जाता है,
दोनों कहाँ अपना है।
ये केवल एक सपना है,
टूटी निद्रा कहाँ कुछ होना है।
सुख से ना इतराना है दुःख से ना घबराना,
चूँकि मैं हूँ जीवन का एक आइना।

युगलकिशोर तिवारी - कोरबा (छत्तीसगढ़)

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