थोड़ी सी विनम्रता - कविता - सुरेन्द्र प्रजापति

निर्मल शब्द, मेरे प्रिय के
कंचन तन को, सुंदर मन को
न बनने देना पत्थर सा सख़्त
न होने देना व्यथित और उदास
न खोने देना कोई गंध, स्वप्न
न ही युद्धरत होने देना

इसीलिए कि कोई प्रतिरोध करे
कोई दिखाए चाकू
चलाए नफ़रत का चाबुक
तो इसका यह अर्थ नहीं कि
हम कठोर बन जाएँ
कर लें कुविचारों को स्वीकार

संभव है अपनी दीनता से घिघीयाते
अपना घर फूँकते, तमाशा देखते
सृजन कर लें, तुम्हारे लिए
थोड़ी सी विनम्रता
प्रभात का सनोलापन, कोमलता का विस्तार

सुरेंद्र प्रजापति - बलिया, गया (बिहार)

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