बहुत दिनों के बाद - कविता - प्रवीन 'पथिक'

बहुत दिनों के बाद,
लगता है ऐसे;
जैसे ज़िंदगी का दायरा
सिमट गया हो एक छोटी बूॅंद में।
मेघों की भीषण गर्जना,
सिसकियों तक;
हो गई हो सीमित।
वेदना का घोर अन्धड़,
शांत हो,
ताक रहा हो;
आकाश की नीली ऑंखों में।
जहाॅं उसका अतीत
दिखाई देता है।
अपने यथार्थ रूप में।
वेदना के बादल भी,
जा बरसे हैं;
दूर, उस पुराने खंडहर में,
जहाॅं किसी का आना जाना
कभी नहीं होता।
हृदय की तरंगे भी,
अब हो गई हैं पूर्णतः शांत।
जैसे वृद्धापन की चादर ओढ़,
खोई हो;
अपनी जवानी के दिनों में।
और...
और तुम्हारी यादें भी,
टाॅंग दी गई हैं
खूटियों पर;
पुराने कपड़ों की भाॅंति,
हमेशा के लिए।


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