आँखों का सपना - कविता - डॉ॰ आलोक चांटिया

दिन भर मुट्ठी में
उजाला पकड़ता रहा,
फिर भी क्यों मन
अँधेरे से डरता रहा,
पग ने भी जाने कितना
पथ चल डाला,
कहते जीवन को
अब भी है, मधुशाला,
सृजन का असली
मतलब तारे समझाए 
देख निशा के संग
कुछ सपने भी है आए,
बुन कर इनको फिर
नींद के रंग से भर दो,
साँसों की वीणा से
मन्त्र मुग्ध सा कर दो,
'आलोक' की आहट सोच
रात छोटी हो जाए,
हर आँखों का स्वप्न 
पूरब का दर्शन भर दो।

डॉ॰ आलोक चांटिया - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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