तीज - कविता - अभी झुंझुनूं
रविवार, जुलाई 27, 2025
हरी चूड़ियों की खनक में, सौगंध है सावन की,
मेहँदी रचे हाथों में, तस्वीर है सावन की।
पिया मिलन की आस लिए, नयन सजाए नारी है,
हरियाली तीज लाती है, जैसे प्रेम की पुकार सारी है।
झूले पड़ते शाखों पर, गीतों की गूँज सुनाई दे,
सखियाँ संग सजती नारी, जैसे कोई रीत पुरानी हो।
व्रत रखती है निस्वार्थ वो, पति की लंबी उम्र को,
हर साँस में बसती है उसके नाम की प्रेम कहानी हो।
शृंगार की सजी थाली, पूजा में समर्पित मन,
शिव-पार्वती की कथा में, छुपा है सच्चा लगन।
तीज नहीं बस त्यौहार है, यह नारी का सम्मान है,
संस्कारों की मूरत ये, स्नेह का अभिमान है।
माँग में सजा सिंदूर उसका, आँखों में विश्वास है,
प्रेम की इस नाज़ुक डोरी में, छुपा समर्पण का अहसास है।
वो भूखी-प्यासी रहकर भी, मुस्कुराती है सज के,
क्योंकि उसका प्रेम, सिर्फ़ शब्द नहीं — पूजा है रज के।
शिव से वो पार्वती बन, अपना सुहाग सजाती है,
हर तीज पे अपने प्रियतम को, मन, वचन, प्राण से पाती है।
ना हार में वो टूटती है, ना जीत पे इतराती है,
वो बस ममता और मोह के फूलों से रिश्ते सजाती है।
तीज का हर व्रत कहता है — 'तू शक्ति है, तू आराधना है',
पति के चरणों में नहीं, तू उसके जीवन की साधना है।
तेरी पूजा में बसी है भक्ति,
तेरे प्रेम में छिपी है मुक्ति…
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