सहचर - कविता - सुरेन्द्र प्रजापति

ये रहस्यमयी काली रात
मेरा उजाला है
जिसके स्याह अँधेरे में
दुबकी पड़ी है प्रभात
टटकी और नई;

तालाब के जल में–
सप्तर्षि अपना अक्स देखकर
हँस पड़ते हैं बिना शोर किए

मैंने झेला है प्रतिरोध
भोगी है यातना
अपने प्रेम करने की क़ीमत पर

एकाकी, मौन का सहचर है
जिसे मैं धारण कर
बसता जा रहा हूँ
ज़िंदगी के नए अनूठेपन में

दिशाओं! मुझे बताओ
इन पगडंडियों पर बने पैर के निशान
धरती के किस छोर पर है?

हे अन्नदाता! तुम जो
बीज डाल रहे हो खेतों में
उसे संवेदना की आँच पर भुना है
फट पड़ने की ज़िद पर।


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