विष को भला पिएगा कौन? - कविता - अनूप अंबर

अमृत की है सबको लालसा,
विष को भला पिएगा कौन?
प्रकाश की है सबको ज़रूरत,
दिनकर सा मगर तपेगा कौन?

अंधकार ने मारी है कुंडली,
निशा ने उत्पात मचाया है।
मानवता सहमी-सहमी सी,
छल ने भी प्रपंच रचाया है।
दीपक बन कर के सबके,
तम को भला हरेगा कौन?

अमृत की है सबको लालसा,
विष को भला पिएगा कौन?

द्रोपदी सभा में खड़ी पुकारे,
पाँच पति है महाबली हमारे।
खिच रहा सभा में चीर हमारा,
अब मेरी रक्षा करेगा कौन?
उठी प्रबल प्रतिकार की ज्वाला,
अब इससे भला बचेगा कौन?

अमृत की है सबको लालसा,
विष को भला पिएगा कौन?

भीष्म मौन है, द्रोण मौन है,
धृतराष्ट्र देख नहीं पाते है।
इसी मौन के कारण ही,
सौ कौरव मारे जाते है।
इतिहास के पन्ने हमको,
बस ये ही ज्ञात करते है।
धृतराष्ट्र जैसे पुत्र प्रेम में,
ख़ुद का शत्रु बनेगा कौन?

अमृत की है सबको लालसा
विष को भला पिएगा कौन?

वो वैसे ही फल पाते है,
जो जैसे वृक्ष लगाते है।
बबूल लगाने वाले आख़िर,
काँटों से कहाँ बच पाते है।
जो अन्याय के साथ खड़े,
वो बेमौत ही मारे जाते है।
देखना है इस महासमर में,
जीवित भला बचेगा कौन ?

अमृत की है सबको लालसा,
विष को भला पिएगा कौन?

अनूप अंबर - फ़र्रूख़ाबाद (उत्तर प्रदेश)

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