एक ख़्वाब - कविता - प्रवीन 'पथिक'

जीवन की गोधूली में,
अतृप्त आकांक्षाओं का स्वप्न;
आशान्वित हो तैरता है।
किसी संघर्ष की छाती पर,
उठता ऑंखों में अंधड़;
गुर्राता झंझा का विशालकाय प्रेत;
जिसकी गूॅंज प्रारब्ध के साक्ष्य पर;
अनगिनत वर्षा की बूॅंदों के रूप में,
बरसती हृदय तल पर।
एक ख़्वाब!
जो सो रहा कुंभकरण की नींद,
लपलपाती जिह्वा औ
रक्तरंजित ऑंखों को फाड़े
देख रहा ख़ूनी निगाहों से।
एक ख़ौफ़!
जो निरंतर बहता कपाल के कपाट से;
मोहभंग की काली सतह पर,
लिखी एक अनिर्वचनीय प्रेम कहानी
सैकड़ों शराबियों के नशे को पीते हुए,
बंद कर देती;
किसी कापालिक की गहरी गुफा में।
जहाॅं तंत्र मंत्र का साधना स्थल,
रात्रि के शमशान में,
जलते लाशों का भय मिश्रित वीभत्स दृश्य;
उत्पन्न करता।
अतीत की चुड़ैल का साया!
उल्टे पाॅंवों से
बढ़ रहा निरंतर 
सघन भयानक रात्रि में,
रेलवे लाइन के दक्षिण दिशा में,
शमशान के पुराने पीपल पर बंधे धागों में ,
झूलती प्रेतों की आत्माऍं;
नर पिशाचों का तांडव नर्तन;
और जलता मृत शरीर;
ख़ौफ़नाक मृत्यु के समक्ष,
ला खड़ा करता।
जहाॅं,
जीवन की सारी इच्छाओं का,
होता स्वतः अंत।


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