मुखाग्नि - कहानी - डॉ॰ वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज

बंसीलाल अब एकदम बूढ़े हो चले थे। अपने से चलना-फिरना भी अब मुश्किल-सा हो रहा था। पाँच-पाँच बेटे पर सभी अपने-अपने मतलब के। पत्नी पहले ही गुज़र चुकी थीं। बुढ़ापे का बोझ, पत्नी का साथ न होना, संतानों की ओर से अपेक्षा का दंश। असहज जीवन महसूस करते थे बंसीलाल। निराशा से भी घिरे रहते थे।

कितना सम्मान पाया था बंसीलाल ने। शिक्षा-जगत् में अपने राज्य के नाक पुरुष माने जाते थे। सरकार से लेकर कई शिक्षण संस्थानों ने उन्हें पुरस्कृत व स्मार पत्र देकर सम्मानित किया था। उनके पढ़ाए सैकड़ों छात्र इंजीनियर, डॉक्टर, कलक्टर जैसे बड़े-बड़े पदों पर आसीन थे। चरित्र- निर्माण की भी शिक्षा ख़ूब देते थे। कई छात्रों की चिट्ठियाँ आज भी आती थीं। वे आज भी गुरु हैं, चिट्ठियाँ वे भाव प्रदर्शित करती थीं। कभी कोई छात्र सपरकर उनके दर्शन करने भी आ जाता था। देवी-देवताओं को धन्यवाद देते इन सम्मानों को पाकर। ख़ूब ठाठ और मगन से जीते आए थे बंसीलाल अब तक। 

पर इधर कुछ दिनों से वे काफ़ी थके-हारे और हरदम उदास-उदास-से दीख रहे थे। किसकी नज़र लग गई बंसीलाल की इस ख़ुशी में। सेवानिवृत्त तो पहले ही हो चुके थे। इधर कुछ दिनों पहले पत्नी भी गुज़र चुकी थीं। बाद में उनके पाँचों बेटे आपस में जुदा हो गए। बेटों द्वारा उनके खाने-पीने आदि की पारी बाँध दी गई थी। आज एक के यहाँ, कल दूसरे तो परसों, तरसों, नरसों अगले-अगले के यहाँ। इसी तरह से उन्हें अब अपने ही घर में रोज़-रोज़ अपने बेटों का मुँह जोहना पड़ता। यह सब देख-सुनकर वे काफ़ी दुखी रहते थे। वे दिन-पर-दिन अस्वस्थ होते जा रहे थे। कहीं विशेष रूप से तबीयत गड़बड़ा जाती तो ख़ासकर उसके लिए जिसके यहाँ उस दिन की पारी रहती, मलामत बन कर रह जाते। पर जब उनको तनख़्वाह मिलनी रहती या रॉयल्टी वगैरह, तो उनके सभी बेटे गीध-कौओं की तरह टूट पड़ते। तुरंत आपस में बँटवारा हो जाता उन पैसों का। कभी अपने पास कुछ पैसे रखने की बात कहते तो बेटे उन्हें झोलकर रख देते। इस तरह से मास्टर बंसीलाल अपने बेटों के हाथों की कठपुतली बनकर रह जाते। हरदम सोचते रहते उसके साथ ऐसा क्यों हो रहा है? जिसने हर ओर मैदान-ही-मैदान मारा है; अपने घर बेटों के लिए...? सभी को ख़ुद में कटौती कर बढ़िया ढंग से पढ़ाया-लिखाया। तीन ने सरकारी नौकरी भी पा ली। दो प्राइवेट नौकरी ही सही, पर वे भी भले-चंगे हैं। फिर भी सभी ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं...? अगर सरकार पेंशन न देती तो उसका क्या होता! इससे तो अच्छी तरह से वह किसी होटल वगैरह में रहकर ख़ुश रहता।

एक रोज़ मास्टर बंसीलाल सोए थे। रात में उन्हें शौच की हाजत महसूस हुई। वह बैठकर जिसके यहाँ उस दिन की पारी थी, पुकारा, “आनंद है हो? ज़रा पाखाना जाऊँगा बेटा। लालटेन जला और पकड़कर वहाँ तक पहुँचा दे।” आवाज़ सुनकर धीरे से आनंद ने टॉर्च जलाकर घड़ी देखी। रात के तीन बज रहे थे। बहुत बार पुकारा बंसीलाल ने दूसरे तीसरे बेटों का नाम लेकर भी, पर कोई उन तक न आया। अँधेरे में कुछ दिखता भी न था। अंत में उन्हें धोती में ही पाखाना हो गया। काफ़ी डर गए थे। सुबह तो उसके बेटे उसे ऐसी-की-तैसी कर देंगे। अंत में किसी तरह धोती खोली और चौकी के नीचे फेंक कर नंगा ही हो चादर ओढ़कर सो गए।

सुबह हुई तो बंसीलाल के घर में कोहराम-सा मच गया। जिस बेटे के यहाँ उनकी आज की पारी शुरू हुई थी, वह धोती फिचने तथा उनको नहाने-धोने को तैयार ही न होता। कहता “यह सब तो रात में ही हुआ है, इसलिए साफ़-सफ़ाई तो आनंद के ही ज़िम्मा जाएगा।” इधर आनंद कहता, “कैसे कर सकते हैं, यह सब रात में हुआ है?” दूसरा बोला, “आनंद, तुम कसम खाकर बोलो कि जिस समय बाबूजी चिल्ला रहे थे, उस समय तुमने टॉर्च जलाई थी कि नहीं और उस समय तीन बज रहे थे कि नहीं?” आनंद बोला, “यह आप कैसे कह सकते हैं?” दूसरा बोला, “इसलिए कि मैंने भी उस समय टार्च जलाकर घड़ी देखी थी कि नहीं?” आनंद की तो चोरी पकड़ी गई। पर दूसरे ही पल बोला, “पर बारह बजे रात के बाद तो दिन बदल जाता है।” दूसरा बोला, “जी नहीं, हम लोग के यहाँ उदयातिथि के अनुसार दिन शुरू होता है। इसलिए जल्दी से इन्हें नहलाओ-धुलाओ, नहीं तो आज भी तुम्हें ही खिलाना-पिलाना पड़ेगा।” 

एक पुराना शिष्य धीरेंद्र, जो बंसीलाल से भेंट करने आया था, ये सारी बातें कुछ देर से खड़ा-खड़ा सुन रहा था। उसने झट से चौकी के नीचे से मक्खियाँ भिनकती वह धोती उठा ली और बगल के कुएँ पर जाकर फिचने लगा। मास्टर के सभी बेटे छुपी निगाहों से वह दृश्य देख रहे थे। धोती फींची और अलगनी पर पसार मास्टर के पैर छू विदा लिया धीरेंद्र ने। 

बरसात के दिन..., नदी-तालाब में पानी उपलाया हुआ था। एक रात बंसीलाल चुपके से कहीं को निकल पड़े। अपने एकमात्र सहारे छड़ी के धीरे-धीरे ही, मगर क़ाबू में होकर बढ़े जा रहे थे। तेज़ हवा..., हल्की-हल्की बारिश..., जगह-जगह मेंढ़कों कि टर्टर्राहटें.., झिंगुर तो हर तरफ़ झंकार कर रहे थे। रात बिल्कुल भयावनी दिख रही थी। पगडंडियाँ तो कहीं दिखाई न देती थीं। रोशनी के नाम पर जुगनुओं की भक-भुक...। खेतों-गड्ढ़ों को पार करते हुए पहुँच गए मास्टर एक तालाब के किनारे। पहुँचते  ही उन्हें एक छाया-सी दिखी। डर गए। पहली बार उन्हें भूत के होने का भ्रम हुआ। पर सोचा उससे भी मुकाबला हो जाए, तो अच्छा ही होगा। छाया धीरे-धीरे पीछे हटती गई। ‘छपाक!’ मास्टर अपनी छड़ी को साथ लिए ही तालाब में कूद पड़े। ‘छपाक’! तभी दूसरी आवाज़ सुनाई थी। और, वह छाया भी तालाब में कूद पड़ी। अब दोनों तट पर थे। उसने मास्टर को तालाब में से छान लिया था। पानी निकालने के बाद मास्टर उससे बोले, “कौन हो तुम और फिर तुमने मुझे पानी से क्यों निकाला?” आवाज़ पहचानने के बाद छाए से आवाज आई, “मास्टर जी, आप? आप यहाँ क्या करने आए थे?” अब मास्टर ने भी आवाज़ से उसे छाए को पहचान लिया, “धीरेंद्र, तुम? पर तुम यहाँ क्या करने आए थे?” “जो करने आप आए थे?” “पर क्यों, तुम जानते नहीं, आत्महत्या करना महान पाप है?” “यही तो मैं भी सोच रहा हूँ कि जिसने छात्रों को ये सारी बातें बतलाईं-समझाईं, वही आज...।”

“बेटे, गुरु जो बतलाए, उसका पालन करना चाहिए; जो करें, उस पर ध्यान कदापि नहीं देना चाहिए।” यहाँ पर भी मास्टर ने गुरुता को नहीं ही छोड़ा। आगे बोले, “पर सच-सच बता, तुम किस वजह से ऐसा करने पर तैयार हुए?”

“आपसे झूठ क्या बोलना..।” फिर धीरेंद्र आगे बताने लगा, “आप तो जानते ही हैं कि मैं एम॰ ए॰ पास बेरोज़गार हूँ। कुछ ट्यूशन वगैरह से खींच-खाँचकर पत्नी और बच्चों का निर्वाह होता है। कुछ दिन पहले एक लड़का कुपोषण का शिकार हो गया।” गला रूँध आया था। फिर क़ाबू पा आगे बोला, “इधर पत्नी तपेदिक का शिकार हो मौत के दिन गिन रही है। ट्यूशन से भी बहुत कम पैसे आ रहे थे। उस दिन मैं आपके पास इन्हीं सब के समाधान हेतु ट्यूशन आदि के बारे में पता करने गया था, मगर...।”

“मैं तेरा दुख समझता हूँ बेटा। पर, इसका निदान यह नहीं है। घोर अपराध होता है यह। ख़ैर, भगवान जो करते हैं, सब सही ही होता है। लगता है, हम दोनों का यह दुर्योग संयोग बनकर एक नए जीवन को आयाम देगा। धीरेंद्र, तुम मुझे बाप समान समझते हो न?”

“क्या आप मुझपर संदेश भी करते हैं?”

“तो फिर चले न हम बाप-बेटे अपना घर। ख़ूब ठाठ से रहेंगे अब हम। धीरेंद्र, जन्म लेने से ही कोई बेटा नहीं हो जाता; जबकि वह बुढ़ापे का सहारा और उसके मान-सम्मान का ख़्याल न रख सके। मैं भी ग़लत था। अरे मेरे उन पुत्रों में न मेरी उपेक्षा की है, मानस पुत्रों ने तो नहीं?” 

इस प्रकार धीरेंद्र के साथ मास्टर बंसीलाल उसके घर प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे। हज़ारों रुपये उनकी पेंशन के मिलते थे। पहले उसकी पत्नी संजू का अच्छी तरह से इलाज करवाने को कहा। इलाज के कुछ ही महीनों में उसकी पत्नी का रंग खिलने लगा। संजू अब हसीन युवती-सी दिखने लगी। वह मास्टर को किसी प्रकार से अपना से कम न समझती थी। आख़िर में वही एक तो उसके घर में बुज़ुर्ग थे। सास-ससुर तो उसके पहले से ही गुज़रे हुए ही थे। बंसीलाल के नहाने-धोने से लेकर उनकी सेवा के लगभग सारे कार्यों का भार संजू ने अपने ज़िम्मे ले रखा था। नियमित लगभग एक घंटा बंसीलाल के पूरे शरीर में तेल मालिश करती। अब बंसीलाल ने अपनी बूढ़ी हड्डियों के बल पर नौजवानों के संग-संग चलने का मिथक पाल रखा था। धीरेंद्र भी अब काफ़ी ख़ुश रहने लगा था। मास्टर के पैसे और अपनी ट्यूशन के पैसों से मजे से वह घर चलाने लगा।

आज मास्टर बंसीलाल सुबह को ही मंत्र पढ़ते-पढ़ते ब्रह्म में लीन हो गए। धीरेन्द्र औपचारिकता और लौकिकता का निर्वाह करते हुए उनके घर गया। बेटों से कहा “सिर्फ़ आप खाली हाथ अंत्येष्टि में शामिल हो जाएँ।” पर, बदले में लगभग उसे सभी मारने दौड़े। फिर भी उसने बड़े लड़के के सामने हाथ जोड़कर विनती की, “कम-से-कम आप तो चलें। बाप को ‘मुखाग्नि’ उसका बड़ा बेटा ही देता है। इतना पर भी उस आदमी पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। और, दुत्कार कर भगा दिया।

घर आकर धीरेन्द्र अपने कई ग्रामीणों के साथ मास्टर बंसीलाल की अर्थी लेकर जा पहुँचा शमशान घाट। चिता सजी हुई थी जब मुखाग्नि देने की बारी आई, तो ठमक गया धीरेन्द्र। एक बार फिर मास्टर के बड़े लड़के को बुलाने का जी हुआ। जब बड़ा लड़का मौजूद व स्वस्थ है तो...। वह चिंतामग्न था। ग्रामीणों की नज़र उस पर थी। धीरेन्द्र ने एक बार चिता पर पड़े मास्टर का दिव्य मुख देखा। लगा जैसे वे कह रहे हों “क्या देखते हो बेटा, किसकी राह देखते हो? उन्हें मैं प्यारा नहीं, मेरी संपत्ति प्यारी है। दे मुखाग्नि, यह बात मत समझ कि तुमसे मेरा ख़ून का रिश्ता नहीं है। उन कई तारों से तो तुम चाँद मेरे लिए कई गुना प्यारे हो।” और ऐसा समझकर धीरेन्द्र ने मास्टर बंसीलाल को ‘मुखाग्नि’ दे डाली।

डॉ॰ वीरेंद्र कुमार भारद्वाज - पटना (बिहार)

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