आत्मीयता की डोर - कविता - कर्मवीर सिरोवा 'क्रश'

तुझसे हैं मेरे बख़्त का रिश्ता,
तू बस सा गया हैं मेरे दिल-ओ-तसब्बुरात में,
प्रकति के घर जब सुबह पैदा होती हैं 
तेरे प्रेम के आँचल में किलकारियाँ भरती हैं,
सूर्य की पहली किरण तुझें छूने को लालायित दिखती हैं,
वो चुपके से तेरे चेहरे से नूर चुराकर इस जहाँ को रंगीं करती हैं,
तू जब सुबह उठते ही रोता हैं, खिलखिलाता हैं,
बिना चाय पिए ही मेरी सुबह हो जाती हैं,
दुनिया के तमाम फूलों की रानाई तेरे चेहरे पर उतरकर
तुझसे अंतहीन रिश्ता बना लेती हैं,
और तुझमें प्रकति का ये रूप तुझमें देखकर
मेरे जीवन की थकान पलभर में उतर जाती हैं,
तू जब सुस्ताने लगता हैं,
तुझमें निंदिया रानी मुस्कराती नज़र आती हैं,
और मैं भी तुझें गोद में थामकर ख़्वाब देखने लगता हूँ,
और तुम्हें मेरे मुस्तक़बिल के रथ का पार्थ पाकर मुस्कराने लगता हूँ, 
मैं पाता हूँ तेरी मौजूदगी मेरे हर ख़्वाब में हैं,
तू ही मेरे हर सपने की डोर हैं, पतंग हैं,
ऐसे तो बहुतेरे ख़्वाब हैं मेरे ज़ेहन में,
पर जिस ख़्वाब का नसीब तू हैं,
मैं उस ख़्वाब को एक नन्हें बच्चें की तरह पकड़ने दौड़ता हूँ,
ठीक उसी तरह जिस तरह कोई बच्चा बड़े उत्साह से कटी पतंग पकड़ता हैं,
ऐसा लगता हैं कि मेरा ख़्वाब पतंग की तरह आसमान में लहरा रहा हैं,
जिसकी डोर मेरे दिल से जुड़ी हैं,
ये माँजा चाइनीज नहीं हैं,
ये भारतीय हैं जो आत्मीयता की डोर से लबरेज़ हैं ये रिश्तों को काटती नहीं उनमें रंग भर देती हैं।


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