पहेली जीवन की - कविता - प्रवीन 'पथिक'

अनबुझ पहेली जीवन की,
जो बचा रहा वह नहीं रहा।
जो टीश कभी उठी नहीं,
वह शूल न हमसे सहा गया।
कितनी नदियों का पता नहीं,
जो जहाॅं चली, वो वहीं रही।
सागर के उर में उठे लहर,
पीड़ा उसकी न दिखी कभी।
हालत ऐसे, कुछ कर न सका,
डूबा उसमें, उबर न सका।
थी एक ख़ुशी, ख़ुश रखने की,
उलझा ही रहा, सँवर न सका।
तू आई घना अँधेरा था,
ग़म का फैला बसेरा था।
था जहाॅं खड़ा, एक खाई थी,
दिखता न कहीं, सवेरा था।
पाया तुझको, लगा मन को,
अभी कुछ है जो कर सकता।
भले ही सब कुछ चला गया,
है फिर भी कुछ ठहर सकता।
था चला, दुनिया से मोह छोड़,
मान, परिणाम निराशा है।
मिला, तू ही सच्चा मीत मेरा,
समझा, तू जीवन आशा है।
तुझको पाकर है सब पाया,
अब कुछ पाना न, खोना है।
जब ऑंखें मूँदे अंतिम मेरी,
तेरी ऑंचल में सोना है।

प्रवीन 'पथिक' - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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