तुम्हारी प्रेयसी की त्रासदी - पत्र - लक्ष्मी सिंह

मुझे उसके जिस्म की तलब तो नहीं थी लेकिन मैं उसके फेंके हुए उस सिगरेट के टुकड़े को छूना चाहती थी जो उसकी उँगलियों से लिपटकर उसके होठों तक जाया करते थे  क्योंकि मैं आधी जली हुई सिगरेट को अपने सिरहाने  रख कर उसे महसूस करना चाहती थी, यह महज़ क्षणिक मात्र का सुख था मेरे लिए और कुछ नहीं। हमारा मिलना कभी हुआ नहीं सिर्फ़ हमारे अल्फ़ाज़ ही थे जो हमें हमेशा एक दूसरे के क़रीब लाकर खड़ा कर देते थे लेकिन हमारा रू-ब-रू होना मुनासिब नहीं था, उसका शहर अलग था और मेरा अलग उसने कई बार मेरे दहलीज़ पर दस्तक देने की कोशिश तो की पर मेरे ही संस्कार भरे क़दम हमेशा लड़खड़ा जाया करते थे।

जीवन का हर लम्हा ख़ूबसूरत तो रहा लेकिन वह प्रेम जिसमें एक सुकून था वह शायद कहीं ना कहीं खो सा गया।  ऐसा नहीं था कि तुमसे बिछड़ने के बाद मेरी ज़िंदगी रुक गई हो लेकिन ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं रही, इश्क़ का कारवाँ तुम पर आ रुका था, आज सारे चेहरे फिके थे, तुम्हारे आगे निगाहें ठहर सी गई थी, तुम्हारे लिखे नज़्मों पर  जिसमें मैं और तुम ख़ामोश हुए तारों की छाँव में बैठे थे उनकों पढ़कर साफ़-साफ़ ज़ाहिर होता था कि इतने अर्से  गुज़रने के बाद भी आज भी मैं किसी कोने में हूँ तुम्हारी ज़िंदगी में।

तुम्हारा चले जाना और मेरा कभी वापस न लौट कर आना, अर्से पर अर्सा गुज़रता रहा और मेरी मोहब्बत बढ़ती रही। तुम्हारे लिए ज़माना कितना बदल गया लेकिन ज़माने के साथ जाति धर्म नाम की कुरीतियाँ नहीं बदली। बड़े शहर में तो इसका कोई मतलब ही नहीं था परंतु मेरे छोटे से गाँव में इसने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था। मैं करती भी तो क्या करती? कब तक अपने ज़ख्मों को कुरेद-कुरेद कर लिखती और काग़ज़ों को ज़ख्मी करती रहती? लेकिन सच में ना सही परंतु कल्पनाओं में मैंने अपना एक घर बनाया था जिसमें सिर्फ़ ख़ामोशियाँ और ख़ुशियाँ रहती थी। ख़ामोशियाँ मैं थी और मेरी ख़ुशियाँ तुम थे।
मेरे पास कुछ नहीं था तुम्हें देने के लिए, सिवाए मेरे शब्दों के और तुम उन्हीं में बहुत ख़ुश थे।

यह बात उन दिनों की है जब मज़हबी और जातियों की सियासतें चला करती थी हमेशा, इनके आगे बहुत लोगों की मोहब्बत ने दम तोड़ दिया था उनमें से एक मैं भी थी शायद किंतु मैंने कभी इस श्रेणी में ख़ुद को गिना ही नहीं था।
मैं ख़ुद इन सबसे अलग समझती थी, हाँ ख़ुशियों का अपने गला घोटा ज़रूर था मैंने, लेकिन मेरा प्रेम दुखान्त नहीं सुखान्त घटनाओं में से एक था। यह समाज यह मज़हब यह जाति क्या रोकते मुझे मेरे पंखे कैसे काट सकते थे क्योंकि हम शब्द के साधक थे और ज्ञान बुद्धि की देवी माँ शारदा मेरे उँगलियों में विराजमान थी तो मुझे भय किसका था? तुम ना सही मेरी क़लम ही सही। मेरे कपकपाते हाथ जो दास्ताँ लिखा करते थे।

मुझे विश्वास है एक दिन जब तुम बूढ़े हो जाओगे हर काम से मुक्त हो जाओगे जब तुम्हारे बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाएँगे उस दिन तुम सारी चिंताओं से मुक्त हो जाओगे तब तुम ज़रूर मुझे पढ़ोगे। लाठी के सहारे लड़खड़ाते क़दमों के साथ अलमारी की तरफ़ जाओगे और ठठक कर खड़े हो जाओगे। तुम को समझ नहीं आएगा कि कौन सी किताब निकाले पढ़ने को क्योंकि तुम्हारी अलमारी में मेरी किताबों के अलावा कुछ और नहीं होगा फिर उसमें से "तुम्हारी प्रेयसी" नाम की वह किताब निकालो जिसे मैंने सिर्फ़ तुम्हारे लिए लिखा था। तुम वहाँ से किताब लेकर वापस आकर कुर्सी पर बैठकर चश्मे को पहन उस किताब के पन्नों को पलटना शुरू करोगे, हर उस शब्द को पढ़ोगे जो मैंने तुम्हारे लिए लिखे होंगे। चाय की चुस्कियों के साथ पढ़ने का अलग ही मजा होगा, है ना!
उस वक्त के लिए मेरी एक तस्वीर तुम्हारी आँखों में बन जाएगी। ऐसा नहीं है कि मैं तुम्हें याद नहीं आऊँ, मैं याद आऊँगी ज़रूर और आँखों से बह भी जाऊँगी क्योंकि यही मेरा वजूद है जो तुम मुझे हमेशा समझाने की कोशिश किया करते थे।

लक्ष्मी सिंह - जौनपुर (उत्तर प्रदेश)

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