आज़ादी - कविता - ऊर्मि शर्मा

कई बरसों से था वो
साथ मेरे।
मेरी खिड़की से
मेरे पास आना,
हमेशा के लिए,
मेरा साथी हो जाना।
दिन में घर से निकल, 
शाम होते ही लौट आना, 
बैठ के सामने बातें करना,
मेरी भाषा-धर्म,
सब सीख जाना।
इक दिन कह दिया,
हँस के जो हमने,
इक दिन के लिए
पंख अपने ज़रा
दे-दो हमें, 
मैं उड़ना चाहती हूँ,
खुले आकाश में,
परिदों के संग तेरी तरह,
जाऊँ आकाश के अंदर, 
चाँद तारों को छु लूँ।
सुग्गा सुनता रहा,
अचानक बोल उठा, 
तुमने तो माँग ली
आज़ादी मेरी,
ग़ुलामी के लिए,
और वो उड़ गया। 
मैं सोचती रही, 
वो क्या समझा गया?
बता गया,
क्या कह गया?

ऊर्मि शर्मा - मुंबई (महाराष्ट्र)

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