मञ्जरी - कविता - मृत्युञ्जय कुमार पाण्डेय

सज रहीं जो कोंपलें
शृंगार करती तरुवरों की,
उस कोंपल की ध्येय बनती
मैं हूँ तरु की मञ्जरी।

तरु जो विहग को
वास देते, आस देते,
उस तरु की चेतना में
समाई हूँ उसकी मञ्जरी।

जो विटप विशाल बनकर
छाँह देते, फल भी देकर,
तृप्त करते, विभोर करते
स्नेह का विस्तार करते।

उस विटप विशाल की
विस्तृत है जिसकी डाल भी,
पुष्प भी खिले हुए हैं
निज तले पसरे हुए हैं।

मैं अटल सी राह में
पग को छिपाए सुमन की बाँह में,
मुस्कुराती, खिलखिलाती,
पग उठाती डगमगाती।

सहर्ष जीवन झेलती मैं
हूँ जीवन की मञ्जरी।

देख मुझको मुस्कुराते
जन-जन के पलक,
सुमन और खग-विहग,
संग में शृंगार भरते मन और नयन।

मैं हूँ उस शृंगार में
सजती, सँवरती मञ्जरी।

ज्यों समय है साथ रहती
रागिनी की संगिनी बन,
ज्यों दिवस के संग रहती
काल की अंतिम प्रहर भी।

उस अँधेरी रागिनी में
मैं भटकती रोशिनी सी,
दिवा के हर पल को सँजोती
मैं दिनकर की छावनी सी।

काल का ग्रास पल-पल हूँ बनती
मैं टूटती-झरती मञ्जरी।

मैं तनया बन जोड़ती हूँ
अभिलाषाओं की लम्बी कड़ी,
कभी मैं तनय बनकर तोड़ती हूँ
आशाओं की पतली डोरी।

कभी मैं सुभग प्रासाद बनकर
बसती हूँ उसमें चंचला बन,
कभी मैं उड़ती अनंत गगन में
एक अदम्य परिंदा बन।

बस मेरा विस्तार यहीं तक
मैं यहीं तक हूँ सिमटी हुई।

मैं अडिग से पथ पर भी हूँ
स्नेह से
खिलती-बढ़ती
टूटती-झरती मञ्जरी।

मृत्युञ्जय कुमार पाण्डेय - धनबाद (झारखण्ड)

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