दशरथ माँझी - कविता - गोकुल कोठारी

फड़कती भुजाओं का ज़ोर देखा,
क्या ख़ूब बरसे घनघोर देखा।
कर्मों की बहती दरिया देखी,
उससे निकलती नई राह देखी।
इतिहास रचने की चाह देखी,
माँझी के प्रण की थाह देखी।
कौन दिखाया राह नदी को,
सूरज को चलना कौन सिखाया।
चीर दिया चट्टानों को वह,
यह अतिरेक कहाँ से आया।
आशा को तो जानो मोती,
वह मोती के सीप बने।
नतमस्तक कर गहन तमस को,
जगमग जगमग दीप बने।
हार जीत की जिनको बिल्कुल भी परवाह नहीं,
अग्निपथ पर चलने वालों को अंधेरी राह नहीं।
क़दमों से नापी धरा न ही घोड़ा न ही रथ पर,
हाथों को हथियार बना सतत अग्रसर कर्म पथ पर।
करके दर्प शिखर का मर्दन बन जाते हैं जो ख़ास,
ख़ून पसीने से लिखकर जाते हैं इतिहास।
धारा के प्रतिकूल बहे और कर डाला अपने अनुकूल,
जैसे सागर की गहराई में सरिता ढूँढ़े अपना मूल।
एक-एक पग से नापी धरा और छितराई चट्टान,
मानव का देखा उत्थान बनते देख लिया भगवान।

गोकुल कोठारी - पिथौरागढ़ (उत्तराखंड)

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