मैं बुद्ध होना चाहता हूँ - कविता - इमरान खान

मैं बुद्ध होना चाहता हूँ,
मनुष्य की पीड़ा का।

कि वक़्त और वक़्त के दो टुकड़ों के बीच
अतीत और वर्तमान की खाल पर,
आदिम युगों सा,
मैं मनुष्य की पीड़ा का
उद्धार करना चाहता हूँ!

जैसे एक पक्षी आकाश में गोता लगाता हुआ धीरे-धीरे नीचे उतरता है,
मैंने भी अपनी देह को एकांत के तल पर स्थापित करके 
भीतर की पीड़ा का उद्धार किया है।

काँटों के नुकीले चट्टानों पर थमा हुआ 
भविष्य का बुखार,
पाँव-तले शीशे के टुकड़ों में चमकता, तमतमाता 
बुद्ध का महापरिनिर्वाण।
सत्य, अहिंसा, सील, ज्ञान सी असीमित बातें।
आदिम युगों की पीड़ा के खुरदरे निशान 
मिट्टी के स्तूप की तमतमाती रोशनी में
भीतर कहीं दबे पड़े है।
मेरे मस्तष्क पर कई शताब्दियों से।

इसलिए 
मैं मौन हूँ!
मैं निर्वाण प्राप्ति के अंतिम तल पर हूँ।
मैं महायान और वज्रयान की बंदिशों से परे हूँ।
मैं मनुष्य की पीड़ा का आख़िरी लहू हूँ।
मैं वेदना का अंतिम सर्ग हूँ।
मैं बुद्ध का अनुयायी हूँ।

इमरान खान - नत्थू पूरा (दिल्ली)

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