झारखण्ड के अमर शहीदों को जोहार : अमर शहीद बुधू भगत - धारावाहिक आलेख - डॉ॰ ममता बनर्जी 'मंजरी'

15 नवम्बर, 2022 को झारखंड 22 साल का हो जाएगा।
'झारखण्ड स्थापना दिवस' का पावन दिन आदिवासी नेता बिरसा मुंडा की जयंती के रूप में भी जाना जाता है।
यह बात सर्वविदित है कि वर्ष 2000 से पूर्व झारखंड बिहार का एक अभिन्न अंग था। 2000 में अस्तित्‍व में आया झारखंड राज्‍य न सिर्फ़ कई चरणबद्ध आंदोलनों की देन है बल्कि झारखण्ड के हज़ारों भूमिपुत्रों के शहादत के परिणाम भी। यह बात अलग है कि आदिवासियों का प्रारंभिक आंदोलन के स्वरूप अलग थे और आंदोलन अंग्रेजों के विरुद्ध था मगर उद्देश्य था-जल, जंगल और ज़मीन पर आदिवासियों के हक़ की लड़ाई।
आंदोलन की सुगबुगाहट तो तभी शुरू हो चुकी थी जब सन् 1765 में 12 अगस्त को मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने इंग्लिश कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी 26 लाख रुपए वार्षिक पेंशन के बदले दी।आज का झारखण्ड तब बिहार का हिस्सा था। फलस्वरूप सैद्धांतिक रूप से झारखण्ड क्षेत्र भी अंग्रेजों के अधीन चला गया लेकिन व्यवहारिक रूप से ऐसा नहीं हुआ था।
झारखण्ड क्षेत्र के राजाओं का कहना था कि वे स्वतंत्र शासक हैं और मुगलों द्वारा बंगाल-बिहार में क़ब्ज़ा करने के पूर्व ही अपने राज्यों की स्थापना कर चुके थे। मुगलों की ज़ोर-ज़बरदस्ती के कारण भले ही वे कभी-कभी थोड़ी-बहुत कर उन्हें दे दिया करते थे लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वे अंग्रेजों के हाथों छोटानागपुर की दीवानी सौंपे।
इस तथ्य में सत्यता थी।छोटानागपुर क्षेत्र के राजाओं का आरंभिक काल उस समय से रहा है जब यह क्षेत्र केवल जंगल था और इसपर किसी का आधिपत्य नहीं था। ये जंगल-पहाड़ क्षेत्र के स्वतंत्र राजा थे। इनकी अपनी व्यवस्था थी, वंश परंपरा थी और सेनाएँ थी। फिर भी कम्पनी ने इन राजाओं के राज्य में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया था।
यह हस्तक्षेप सिर्फ़ कर लेने या साम्राज्य विस्तार के लिए नहीं था अपितु कई अन्य कारणों के साथ इस क्षेत्र के चारों और अपनी साम्राज्य की रक्षा करने के लिए भी था।
यही कारण था कि अंग्रेजों ने अपने राजनैतिक निर्णय में छोटानागपुर क्षेत्र में आधिपत्य को सर्वोपरि मुद्दा बनाया था। यद्यपि इसमें अंग्रेजों को सफलता पाने में देर हुई मगर इस क्षेत्र की दीवानी उन्हें मिलने लगी थी भले ही शुरुआत में इनका इस क्षेत्र में प्रवेश बहुत ही क्रमिक रहा और कुछ क्षेत्रों पर इनको प्रवेश करने का मौक़ा ही नहीं मिला लेकिन कालांतर ये इन क्षेत्रों में अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफल रहे। साम्राज्य स्थापित करने के बाद भी यह विरोध चलता रहा और उसके बाद इनके ग़लत नीतियों के निर्धारण और शोषण और ज़ोर-ज़बरदस्ती पर स्थानीय राजाओं और आम जनता का लगातार विरोध होता रहा।यहीं से शुरू होता है-आंदोलन की शृंखला।
अधिकतर आंदोलनों में तत्कालीन छोटानापुर के अर्थात झारखण्ड के आदिवासियों की भूमिका अग्रणी रही।
इसी सिलसिले में स्वतंत्रता की लड़ाई में शहीद होने वाले क्रांतिकारियों के नाम झारखण्ड के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में उल्लेखित है।
'झारखण्ड स्थापना दिवस' के शुभ अवसर पर हम साहित्यकारों का फर्ज बनता है कि झारखण्ड के इन भूमिपुत्रों के लिए अपनी लेखनी चलाएँ और इनकी शौर्य गाथा से समस्त विश्व को रू-ब-रू कराकर झारखण्ड के इन अमर शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करें।

अमर शहीद बुधू भगत
जन्म -17 फ़रवरी, 1792
मृत्यु - 13 फ़रवरी, 1832

उराँव परिवार में जन्में बुधू भगत को अंग्रेजी शासन काल में शहीद होने वाले पहले क्रांतिकारी के रूप में जाना जाता है।
इनका जन्म राँची जिला के चान्हो प्रखंड के अंतर्गत सिलागांई नामक गाँव में हुआ था।इनका बचपन भी उसी तरह बीता जिस तरह आम आदिवासी बालक का बीता करता था। दिनभर बकरियाँ चराना, पारंपरिक भोजन करना और जब भी मौक़ा मिले हमजोलियों के साथ मिलकर तीर-धनुष चलाना इनके दिनचर्या में शामिल था।
यह वह दौर था जब अंग्रेज शासकों का प्रशासनिक हस्तक्षेप से झारखण्डवासी बुरी तरह प्रभावित हो रहे थे। कर लेने के लिए अंग्रेजों द्वारा किया जाना दुर्व्यवहार के शिकार क्षेत्र के आदिवासी हो रहे थे। मुण्डा, मानकी, पड़हा पट्टी, परम्परागत आदिवासी व्यवस्था अंग्रेजी शासन व्यवस्था में नष्ट हो रहे थे।
बाल्यकाल की देहरी लाँघता बुधू भगत पर भी इसका प्रभाव पड़ा और वे क्षुब्ध होकर अंग्रेजों के विरुद्ध गाँव-गाँव घूमकर संगठन बनाने में जुट गए। 
गाँव के लोगों को विश्वास में लेना मामूली बात नहीं थी लेकिन बुधू भगत को युवाकाल में ही कुछ दैवी कृपा मिल गई थी जिससे वे सफल संगठनकर्ता के रूप में उभरने तो लगे ही थे। साथ ही उनमें समाहित समर्पण भाव को देखकर गाँव वाले इनसे स्वतः जुड़ते गए और धीरे-धीरे इनके नेतृत्व में संगठन मज़बूत होने लगा। संगठन क्षेत्र सिल्ली, टिक्कू, टोरी, पिठोरिया, लोहरदगा और पलामू तक था। संगठनकर्ता बुधू भगत युद्ध कला अनोखा था।इनकी एक इशारे से संगठन के लोग अपने परम्परागत हथियारों से लैश होकर एकत्रित हो जाते थे और अंग्रेजों पर अंधाधुंध पत्थरों की बारिश करना शुरू कर देते थे। पत्थरों की वर्षा कहाँ से किधर हो रही है अंग्रेज समझ नहीं पाते थे।
एक तरह से हम कह सकते हैं कि बुधू भगत की सेना अंग्रेजों के लिए आतंक का पर्याय बना हुआ था।
अंततः थक-हार कर अंग्रेज सरकार ने इनके एक-एक क्रिया-कलाप की सूचना एकत्र करने के लिए अनेक जासूस बहाल किए।
बुधू भगत को पकड़ने की कोशिशें तेज़ हो गई। यहाँ तक कि उसे ज़िंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए संयुक्त आयुक्त की ओर से 50वीं नेटिव इंफेक्ट्री के कमांडिंग अफ़सर को सूचना भेजी गई लेकिन उसे पकड़ना आसान न था।
गाँव बुधू भगत को यथासाध्य सुरक्षा प्रदान किया करते थे।
अंग्रेज परेशान होकर उस समय उत्तरी छोटानागपुर और मध्य छोटानागपुर परगनाओं में सेना का प्रभारी कैप्टन इप्टे को बनाया। घुड़सवारों की संख्या में बढोत्तरी की गई।बनारस से कुमुक बुलाई गई।
अब अंग्रेज पहले की अपेक्षा अधिक सजग हो चुके थे। उन्हें ज्यों ही पता चलता कि बुधू किसी गाँव में कार्यक्रम करा रहा है त्यों ही वे पूरे गाँव को घेर लेते।
एकबार सूचना अधिकारियों को टिक्कू में बुधू भगत के कार्यक्रम होने की सूचना मिली तो उन्होनें समूचे गाँव को घेर लिया। लगभग चार हज़ार की संख्या में आदिवासियों को गिरफ़्तार कर लिया गया जिसमें आदिवासी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े सभी शामिल थे। बुधू भगत तो हाथ नहीं आए मगर सारे आदिवासियों को जानवरों की तरह हाँकते हुए चौरैया लाया जा रहा था कि भयानक आँधी आई और अंग्रेज सिपाहियों के घोड़े बेक़ाबू हो जाने से सारे सैनिक बिखर गए और चार हज़ार आदिवासी इनके चंगुल से मुक्त हो गए।
इस विफलता से कैप्टन इप्टे विक्षिप्त हो गए और शीघ्र ही सिल्ली में आयोजित बुधु भगत के कार्यक्रम में इसका बदला लिया और सैकड़ों अंग्रेज सिपाहियों को लेकर समूचा सिल्ली गाँव घेर लिया। गाँव के लगभग तीन सौ लोगों ने बुधू भगत को सुरक्षा देने के लिए मानव-प्राचीर बना लिया और बुधू भगत को उसमें छिपा लिया लेकिन अंग्रेजों की क्रूरता की पराकाष्ठा ऐसी थी कि उन्होनें अंधाधुंध गोलियाँ चलाकर सारे आदिवासियों की हत्या कर दी जिसमें बुधू भगत भी था।
इतना ही नहीं, सन् 1832 के 'बंगाल हरकारा' पत्रिका में प्रकाशित हुई थी कि कैप्टन इप्टे आदिवादियों में भय उत्पन्न करने के लिए शहीद बुधू भगत, उनके छोटे भाई और भतीजों के कटे हुए सिर एक ट्रे में सजाकर पिठोरिया स्थित एक शिविर में कमिश्नर को भेंट किया।
अंग्रेजों के इस क्रूरतापूर्ण कारनामें को धिक्कार करते हैं झारखण्ड के आदिवासी और धिक्कार करती है झारखण्ड की जनता।
मगर अमर शहीद बुधू भगत और उनके साथ मारे गए अमर भूमि-पुत्रों को 'झारखण्ड स्थापना दिवस' के अवसर पर भावभिनीं श्रद्धांजलि अर्पित कर के सगर्वित कहती है-
"जोहार!"

डॉ॰ ममता बनर्जी 'मंजरी' - गिरिडीह (झारखण्ड)

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