यह दर्द बहुत ही भारी है - कविता - आयुष सोनी

कई ख़्वाब टूट कर बिखर गए,
कैसा हर रोज़ तमाशा है।
नम आँखें है, ख़ामोशी है,
मन में इक घोर निराशा है।
कहने को एक सवेरा है पर रात दुखों की जारी है॥

यह दर्द बहुत ही भारी है।

जो आस लगाए बैठा था,
वो सपने बनकर छूट गए।
कुछ हाथ मेरे हाथों में थे,
वो अपने मुझसे रूठ गए।
अब मैं हूँ, चहारदीवारी है और मन में बस लाचारी है॥

यह दर्द बहुत ही भारी है।

मैं घर से दूर निकल आया,
कुछ खोने को, कुछ पाने को।
कुछ साथी नए बनाए है,
इस दुनिया को दिखलाने को।
पर तन्हाई में बैठा हूँ और तकलीफ़ों से यारी है॥

यह दर्द बहुत ही भारी है।

कई चेहरे मैंने देखे हैं,
कुछ हँसते है, कुछ रोते है।
कुछ मुस्काते, कुछ गाते है,
कुछ बिल्कुल चुप-चुप होते है।
चेहरों के इन बाज़ारों में, ख़ुशियों की मारा-मारी है॥

यह दर्द बहुत ही भारी है।

ख़ुशियाँ बिकती है शहरों में,
मत ढूँढ़ो इन्हे सवालों में।
जो ढूँढ़ रहा है ख़ुशियों को,
लग जाए इन्ही कतारों में।
मैं लगा हुआ हूँ वर्षों से, बस कल अपनी ही बारी है॥

यह दर्द बहुत ही भारी है।

आयुष सोनी - उमरिया (मध्यप्रदेश)

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