चिर वेदना में मुझे,
आज होने दो समर्पित।
शाख़ से टूटा हुआ मैं,
रंग फीका और कल्पित।
किशलय से टूट कर,
आज जो पत्ती गिरी,
कल मेरी लालिमा पर,
हो रही थी ख़ूब गर्भित।
उदास उथली एक तरिणी,
और गहरा सूखा समन्दर,
हवा के तेज़ झोंकों में,
रेत अम्बर चाहती चुम्बित।
आशा और निराशा में
गए यूँ वार है कितने?
अभी लिपटे हुए हैं कुछ,
कुछ और होने को समर्पित?
जड़े थी धरा अंदर,
देता पतझड़ सन्देशा था,
समय साक्षी बना उसका,
कभी ऐसा न हुआ दर्शित।
नौका दिशा से हीन,
रुख हवा का छिन्न-भिन्न,
डूब कर नाविक नें,
करी तरिणी नौका अर्पित।
चिर वेदना में मुझे,
आज होने दो समर्पित।।
संजय कुमार चौरसिया - उन्नाव (उत्तर प्रदेश)