नाविक तू घबराता क्यों है? - कविता - सतीश शर्मा 'सृजन'

उठती गिरती लहरें लखकर,
नाविक तू घबराता क्यों है?
ख़ुद या नाव पर नहीं भरोसा,
तो सागर में जाता क्यों है?

तरुणाई है जब तक तन में,
यौवन भी परिपूरित मन में।
लक्ष्य भेद की चाह बड़ी यदि,
विपदा कितनी विकट खड़ी यदि।

नहीं पुरषार्थ कमाता क्यों है?
नाविक तू घबराता क्यों है?

जहाँ जाता बन जाती रेखा,
झरने को क्या कभी न देखा।
पत्थर फाड़ के बर्फ़ गलाकर,
रखता स्वयं को नित्य चलाकर।

निर्झर तुझे न भाता क्यों है?
नाविक तू घबराता क्यों है?

चिड़िया तिनका-तिनका लाती,
चलती पवन उड़ा ले जाती।
फिर लाती रख साथ हौसला,
रुकती जब बन जाय घोंसला।

तब तू नहीं कर पाता क्यों है?
नाविक तू घबराता क्यों है?

जीवन सा संग्राम नहीं है,
इसमें युद्ध विराम नहीं है।
बाधाओं से मन से भिड़ना,
इक कर्तव्य निडर हो लड़ना।

नहीं पतवार उठता क्यों है?
नाविक तू घबराता क्यों है?

सतीश शर्मा 'सृजन' - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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