सुख की कोमल छाया में
जीवन की मोहक माया में
कहाँ वह आनंद?
जिसे, आत्म रचित छंद में गाया जाए!
नवीन क्रीड़ा की पुनरावृतियों में
सृजन के नवीन परिस्थितियों में
कहाँ वह विनोद?
जिसे प्रभात-किरणों से सजाया जाए।
कौतुक करती आत्मा नभ को ताकती
शरीर सपाट भूमि पर गिरती है
लेकिन कहाँ वह ऊर्जा?
जिसे पुरुषार्थ के साथ गाया जाए?
विपदा के भयानक किनारों पर बैठा मैं,
नीलाँचल के सतह पर तैरती
हजार सिपियों को देख रहा हूँ...
बिखर जाने को निमित्त
ये सभी शतरंज पर फेंकी गई गोटियाँ है
जो बटोर ली जाएगी।
फिर भी आशान्वित मै
असम्भव बूँद के लिए लालायित हूँ
जिससे आकाश की नीलिमा नहीं
धरती के कठोर मरू जी उठे
उगने लगे दुब-घास।
सुरेंद्र प्रजापति - बलिया, गया (बिहार)