संजय राजभर 'समित' - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
बँधुआ मज़दूर - कविता - संजय राजभर 'समित'
सोमवार, अक्टूबर 17, 2022
मर गया रामू
जीवन भर क़र्ज़ा चुकाते-चुकाते
पर चुका नहीं पाया।
कभी आधा सेर मज़दूरी
कभी डाँट
पेट की आग में
फिर उसका बेटा...
बँधुआ
फिर उसका...
सदियों से चल रहा है।
ईंट भट्ठों पर
खदानों में
खेत खलिहान
बारी-बगीचा
कहाँ नहीं हो रहा है शोषण?
शारीरिक
मानसिक
जो कुछ बचा
जाति सूचक गाली देकर
सामाजिक शोषण,
कब मुक्त होगा
बँधुआ मज़दूर?
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