कुंभकार : अध्यापक - कविता - सतीश शर्मा 'सृजन' | शिक्षक दिवस पर कविता

गीली मिट्टी को गढ़-गढ़ कर, 
देते बर्तन सा बृहदाकार। 
अनुपम है योगदान तेरा, 
है नमस्कार हे कुंभकार। 

आगे चल कर कोई घड़ा बने, 
प्याला प्याली कुल्हड़ थाली। 
सबको आकार दिया विधि से, 
कोई भी पात्र नहीं खाली। 

हैं चाक से उतर चले पकने, 
कल चाक पर कोई और चढ़े। 
समभाव में कारीगर रचता, 
नित भिन्न-भिन्न के पात्र गढ़े। 

अलविदा स्वागतम है समान, 
एक कुंभकार का यही मरम, 
अवसाद हर्ष से ऊपर रह, 
करता जाए निज सहज करम। 

सतीश शर्मा 'सृजन' - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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