गुरु ऋण मुझ पर है - कविता - रविंद्र दुबे 'बाबु'

मात पिता है, मेरे जन्मदाता, 
बाल जीवन आपने सँवारा। 
प्रकाश पुंज ज्ञानो संग पाऊँ, 
कर्त्तव्य सशक्त, सुदृढ़ किनारा। 
दीपक सा जलकर, मुझे दिया, 
अक्षर ज्ञान, कोरे काग़ज़ पर है।
क्या दूँगा मैं गुरु दक्षिणा गुरुवर? 
ऋण सदा आपका, मुझ पर है। 

कुंदन कच्ची, मिट्टी की काया, 
नटखट बचपन जीवन बदली। 
अनुशासन, सुविचार सिखा के, 
तमस मन की, आपने हर ली। 
अंतर्मन अंधियारी, जो दूर किया, 
सूरज सा तेज़, अमर अजर है।
क्या दूँगा मैं गुरु दक्षिणा गुरुवर? 
ऋण सदा आपका, मुझ पर है। 

अधिकारों की बात समझकर, 
नेक बनूँ, सन्मार्ग पे जाऊँ। 
नौ सीखिए से बाज़ हूँ बनता, 
सागर कठिनाई पार ले जाऊँ।  
कैसे चढ़ना शिखर हैं सीखा, 
चरण आशीष का भार, मुझ पर है। 
क्या दूँगा मैं गुरु दक्षिणा गुरुवर? 
ऋण सदा आपका, मुझ पर है।

रविन्द्र दुबे 'बाबु' - कोरबा (छत्तीसगढ़)

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