एक ख़त - मोनोलॉग - अशहर आलम

आज भी जब कभी यूनिवर्सिटी के रास्ते से गुज़रता हूँ, तो सारे गुज़रे पल मेरी आँखों के सामने नुमाया होने लगते हैं। वह सब जो मैंने तुम्हें पहली बार देखकर अपने दिल में बसाया था। क्लास की फ्रेशर पार्टी में वैसे तो कई लड़कियाँ थीं, मगर जो कशिश, जो नूर तुम्हारे चेहरे पर थी वह किसी और में नहीं थी। तुम्हारा सुर्ख़ लिबास, बड़ी-बड़ी आँखें, उसमें बसा वह गहरा काजल। सब कुछ मुझे आज भी वैसे ही याद है। ऐसा लगता है जैसे यह कल की बात हो। एकटक मैं तुम्हारी तरफ़ देख रहा था। जब तुम्हें मिस फ्रेशर का बैच पहनाया जा रहा था, उस वक़्त मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरा कोई अधूरा ख़्वाब पूरा हो रहा हो। सब खड़े होकर तालियाँ बजा रहे थे, मगर मैं जैसे तुम्हारे वजूद में खोया हुआ था। मुझे उस भीड़ में तुम्हारे सिवा सब अजनबी लग रहे थे। जी चाह रहा था, तुम्हें स्टेज पर चढ़कर गले से लगा लूँ, वक़्त को चंद लम्हे के लिए थाम दूँ और कह दूँ कि मुझे तुमसे इश्क़ है। कह दूँ कि तुम्हारा साथ अगर हो तो दुनिया जीत सकता हूँ। मैं तुम्हें अपने ख़्वाबों की वो दुनिया दिखाना चाहता था जो मैंने तुम्हें पहली नज़र में देखते ही सजा लिया था। मगर यह सब तो बस मेरा एक तरफ़ा ख़्याल था, मेरी एक तरफ़ा आरज़ू थी। मुझे तो यह भी नहीं पता था कि तुम मेरे बारे में जानती भी हो या नहीं। क्लास के एक मामूली से लड़के के दिल में तुम्हारे लिए इतनी हसरत है, इस बात से तुम बेख़बर थी। वह पहला दिन और आज का दिन है। तब भी मैं तुम्हें कुछ न कह सका और आज भी कुछ नहीं कह पाया। बस मुसलसल अपने ख़्वाबों की अधूरी दुनिया में जीता हूँ। मेरा इंतज़ार मेरी शिद्दत मेरी बेबसी का मैं ही तन्हा साथी हूँ। मेरे साथ है तो बस मेरी बेबसी, मेरी अधूरी हसरतें, दिल में दबी सी कसक जो कभी पूरी न हो सकी। मैं यही सोचता रहा और यही सोच कर मैंने एक ख़त तुम्हारे नाम लिखा कि एक दिन किसी लम्हे को रोककर, तुम्हारा पता ढूँढ़ कर तुम्हें यह ख़त सुनाऊँगा।

“मगर तुमने कभी इतनी मोहलत न दी कि तुम्हें वो ख़त सुना सकूँ,
तुम्हें अपनी कैफ़ियत बता सकूँ,
ये जता सकूँ, ये दिखा सकूँ कि मुझे तुमसे कितनी उल्फ़त है।
एक लम्हे के लिए तुम्हारे हाथों में हाथ रख एक दुनिया बसा सकूँ, ख़्वाब सजा सकूँ, चाँद की महफ़िल में तारों की बारात ला सकूँ।

तुम्हें एक लम्हे के लिए ही सही अपना बना सकूँ,
मुझे कभी वो मोहलत नहीं मिली, तुम्हारी वो सोहबत नहीं मिली।

खिले फूल जो मैंने गुलदस्ते में तुम्हारे लिए सजाए थे, 
वो भी तपिश सहते-सहते एक दिन मुर्झा गए।

मुर्झाए हुए फूलों ने मुझ से पूछा, भला हमारी क्या ख़ता है, मेरे पास उनके सवाल का कोई जवाब न था, मैं तब चाह कर भी कुछ न कह सका, जैसे तुम्हें चाह कर भी कुछ न कह पाता था।

ये नाज़ुक फूल तो बस तुम्हारे क़दमों में निसार होना चाहते थे, उन्हें भी कभी ये शरफ़ हासिल न हो सका, इनकी हसरत भी मेरी ही तरह अधूरी ही रह गई।

मेरी ख़्वाहिशें ज़ाहिर होने से पहले ही दफ़्न हो गई,
बातें सारी ज़ुबाँ पे आने से पहले ही ख़त्म हो गई।

एक एहसास जो महसूस करते-करते दिल मुर्दा हो गया,
ये आँखें भी झूठे ख़्वाब देख-देख कर अँधी हो गईं।

एक चीख़ है जो मेरे अंदर ही गूँजती है,
हर बार मेरे सवालों का जवाब मुझ से ही पूछती है।

वो ज़ेहन जिसमें सिर्फ तुम थीं, वो दिल जिसमें तुम्हारा ख़्याल था,
एक बेगुनाही सी थी मेरी, मगर बेगुनाही का भी जैसे मलाल था।

अब ख़त्म हो गए सारे क़िस्से, वो गुलाब की पंखुड़ियाँ जो मैंने ख़त में डाले थे कभी,
वो सब स्याह हो चुकी है, मेरी कहानी भी तबाह हो चुकी है।

वो ख़त जो मुझे तुम्हारे पते पर भेजना था, दिल में दबी सी कसक जो तुम्हें सुनानी थी,
एक बेचैनी सी थी मुझे पैग़ाम भेजने की,
लिखे अल्फ़ाज़ों में एहसास समेट कर भेजने की।

आख़िर मैं कर भी क्या सकता था, उस ख़त में लिखे अल्फ़ाज़ भी तुम्हारी राह तकते-तकते तुम्हारा पता ढूँढ़ते-ढूँढ़ते धुँधले हो चुके हैं।

फिर मैंने एक दिन एक अनोखा काम किया,
अपने ही हाथों अपना ये अंजाम किया,

अपने दिल को बहलाने की ख़ातिर,
झूठे ख़्वाबों में ही सही तुम्हें पाने की ख़ातिर,

मैंने उस ख़त को जो धुँधला हो चुका था, फिर से ताज़ा किया, नए रंग से लिखा, वो रंग नहीं लहू था मेरा।

मैंने वो ख़त तुम्हारे नाम से लिखा और अपने ही पते पर भेज दिया। 

फिर वो ख़त कहीं गुम हो गया, तब मैंने एक दिन अपने होश-ओ-हवास में सोचा कि,

अक्सर सही लिखे हुए ख़त गुम क्यूँ हो जाते हैं।”

अशहर आलम - दरभंगा (बिहार)

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