वो ख़्वाब पुराने - कविता - मेघना वीरवाल

ख़्वाहिशों के इस जहान में
हर दिन पल-पल में 
ख़्वाबों का मेला लगता है, 
कुछ है सामने 
कुछ भीड़ में खोया लगता है।
हम वो है 
जो इस मेले में गुम आते है, 
है कुछ ऐसे भी 
जो बहुत कुछ ख़रीद लाते है।
पूर्ण विराम था 
उन गलियारों से गुजरने का, 
फिर भी मन में एक चाह उठी 
नए ख़्वाब बुनने का, 
निकल पड़े उस राह 
जहाँ गिने चुने लोगों का 
आना जाना था।
हम भी कहाँ रुकते 
मन बड़ा मनमाना था।
चलते-चलते 
फ़िज़ा में 
बहते-बहते
खोल दिए कई राज़ गहरे, 
जो थे तो ज़िंदा 
फिर भी मुर्दा घर में बंद थे।
झाँक के देखा 
आहिस्ते से
उसमें से निकले
"वो ख़्वाब पुराने"
कुछ बिखरे थे
कुछ थे बेगाने।

मेघना वीरवाल - आकोला, चित्तौड़गढ़ (राजस्थान)

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