पत्थर हूँ - कविता - जयप्रकाश 'जय बाबू'

पत्थर हूँ टूटकर जुड़ना 
मुनासिब न होगा,
ख़ुद-परस्त दुनिया में 
साफ़गोई से 
कुछ हासिल न होगा।
पत्थर हूँ...

उनसे कह दो चालों के 
नश्तर न चलाएँ,
लकीरों के सिवा उन्हें 
कुछ हासिल न होगा।
पत्थर हूँ...

जिन हाथों ने मुझे 
संभाला था बार-बार,
सबने समझा कि वह
मेरा क़ातिल न होगा।
पत्थर हूँ...

उम्रभर सफ़र-ए-इश्क़ में 
बस चलना ही है 'बाबू',
इस दरिया का कभी
कोई साहिल न होगा।
पत्थर हूँ...

जयप्रकाश 'जय बाबू' - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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