लोग क्या सोचेंगे ये काम है उनका,
बातें बनाना यही है रीत,
कब लोगों ने तुम्हें ख़्वाब दिखाए,
कब दिए हैं तुम्हें पंख?
गिर गए तो है बात बनाई, जीत गए तो हैं संग।
औरों की बातें सोच-सोच के क्यों बीते हैं युग?
क्या हमारा अस्तित्व नहीं? यही रह जाता प्रश्न,
ख़ुद देखें हैं गर सपने, ख़ुद लिए हैं पंख
क्यों औरों की बातों पर बैठा है यूँ मन?
रिचा सिंह - गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)