मन का कोरा पन्ना - कविता - राकेश कुशवाहा राही

बरसों से मन का कोरा पन्ना कोरा ही रह गया,
शायद मोहब्बत को मेरा पता भूला ही रह गया।
सुना है लिखने के लिए दर्द का होना ज़रूरी है,
सोचकर यही मैं दर्द सारे बटोरता ही रह गया। 

उठता है अंतर्मन में धुआँ विचारो की आग से,
जल जाते है लोग यहाँ मोहब्बत की राख से।
लोगों के पास देने को ग़म के सिवा कुछ नहीं,
सोच कर यही पत्तियाँ गिर जाती है शाख़ से। 

बहते झरने के पानी में ज़िंदगी की रवानी है,
घिसते पत्थरों की भी अपनी एक कहानी है।
तन्हा तन के जीने में कुछ लुत्फ़ नहीं है दोस्तों,
सोच कर यही दरिया समन्दरों की दिवानी है। 

ज़िंदगी जहाँ में लोग मिटकर भी जी रहे है,
तमाम लोग काँटों से बचकर फूल चुन रहे है।
फूलों की नही काँटो की भी ज़रूरत पड़ती है,
सोच कर यही फूल काँटों में भी खिल रहे है। 

राकेश कुशवाहा राही - ग़ाज़ीपुर (उत्तर प्रदेश)

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