भीम दुर्योधन युद्ध - कविता - जितेंद्र रघुवंशी 'चाँद'

ललकारा जब भीम को दुर्योधन ने।
साधा बाण फिर अर्जुन ने।
पर, उसी क्षण रोक लिया,
भीम ने,
कहा, इसके लिए मैं ही काफ़ी हूँ।
क्षमा करे भ्राता, इस अपराध के लिए
माँगता माफ़ी हूँ।।
हुआ फिर घमासान युद्ध।
होने जा रही थी धरती ये शुद्ध।।
लेकिन, वार कम ना था दुर्योधन का।
अकड़कर बोला भीम, है मुझे भी आशीष
मधुसुदन का।।
मानो रुक गई थी उस पल 
सारी ही प्रकृति।
देख रही थी वो भी, कितना बदल गई
मानव कृति।।
भाई ही भाई का शत्रु है।
क्षणिक यश के लिए क्यों लड़े,
बहाए गांधारी कुंती ने अश्रु है।।
पर, ना माने दोनों में बाहुबल था।
मार गिराना है, स्वीकार चाहे छल था।
इसलिए 
पाकर इशारा कृष्ण का 
भीम ने नियम तोड़ दिया।
किया वार दुर्योधन की जंघा पर,
युद्ध को फिर मोड़ दिया।।
होकर धराशाई गिरा धरती पर।
पर, फूट गया पाप का घड़ा,
हुआ उपकार मानव कृति पर।।

जितेंद्र रघुवंशी 'चाँद' - छावनी टोंक (राजस्थान)

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