आख़िर कौन हो तुम? - कविता - सतीश शर्मा 'सृजन'

तेरी मुस्कान में शान,
जबकि मौन हो तुम।
मेरे कान्हा कभी बतला तो,
आख़िर कौन हो तुम?

तू लड्डू गोपाल है क्यों?
गायों का रखपाल है क्यों?
मीरा पर कृपाल है क्यों?
द्रोपदी लजपाल है क्यों?

धारते पंख मोर क्यों?
बनते माखन चोर क्यों?
करती सुर से शोर क्यों?
भाती बंसी तोर क्यों?

गोपियाँ तुमको लखा क्यों?
सुदामा के हो सखा क्यों?
गीता ज्ञान भखा क्यों?
साग विदुर घर चखा क्यों?

पार्थ रथ हँकाई क्यों?
बने सेन नाई क्यों?
रास को रचाई क्यों?
कंस के कसाई क्यों?

कोई कभी तुझे न पहचाने,
क्या क्यों कैसे तू ही जाने।
उनके तो तुम हो मयखाने।
जो भी तेरे हैं दीवाने।

दुष्टों को थे आए मारण।
भक्तों जनों के कष्ट निवारण।
पतितों का भी करते तारण।
जो भी किया बस 'प्रेम' था कारण।

सतीश शर्मा 'सृजन' - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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