श्री राधे-राधे रटता हूँ - कविता - अनिकेत सागर

चाहें जिस जगह रहता हूँ,
चलता मैं जिस भी पथ पर,
नाम तेरा लेना न भूलता हूँ
मन में श्री राधे-राधे रटता हूँ।

बरसाने वारी ब्रज की दुलारी राधा-रानी,
लाड़ली श्यामा-ज्यू जगत की महारानी।
चरणों से लगा लो एक यही अब आस है,
मृदुभाषिणी करुणामयि दरस की प्यास है।
कुछ नहीं पाना जगत में,
भक्ति तुम्हारी करता हूँ।

मनमोहन को कैसे बनाया तुम्हारा बताओं,
ये कला वृन्दावनेश्वरी हमको भी सीखाओं।
थक जाते हम बुलाते-बुलाते वो आते नहीं,
अब तुम ही साँवरे नटखट को समझाओं।
तुम्हारी कृपा से वृषभानवी,
न रोता अब नित्य हँसता हूँ।

रास रचाती कुंजबिहारी के संग-संग तुम,
प्रेम की शीतल छैया में हो जाती हो गुम।
लोक लाज तज कर आती हो यमुना तट,
राधे सदा खुले हैं रहते कृष्ण हृदय के पट।
राधे श्याम राधे श्याम यही,
हर एक क्षण में जपता हूँ।

अनिकेत सागर - नाशिक (महाराष्ट्र)

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