रुचा विजेश्वरी - लेख - दिव्या बिष्ट 'दिवी'

जैसा कि आप सभी जानते हैं सोशल मीडिया संचार का एक ऐसा विशाल माध्यम है जो पूरी दुनिया को जोड़े रखता है, ये एक 'वर्चुअल दुनिया' को निर्मित करता हैं। वैसे तो सोशल मीडिया किसी व्याक्ति, समूह विशेष को समृद्ध बना देता है, साथ ही व्यक्तियों के बीच परस्पर वार्तालाप को भी बनाए रखता है। आज मैं आपको आज कुछ ऐसी ही एक वास्तविक दास्तान बताने जा रही हूँ तो हुआ यूँ कि मैं बहुचर्चित सोशल मीडिया फेसबुक पर स्क्रॉल करते जा रही थी तभी मुझे फेसबुक की फीड में एक पोस्ट दिखी, संजय शेफर्ड सर की जो कि लेखक होने के साथ-साथ ट्रैवलर भी हैं, तो उन्होंने उस पोस्ट में एक बुकमार्क की फोटो डाली थी, जिस पर संजय शेफर्ड सर की कुछ पंक्तियों को ख़ूब सजाकर बहुत ख़ूबसूरत सी चित्रकारी के साथ लिखा गया था, सर ने उस फोटो के साथ कुछ कैप्शन भी दिया था, कैप्शन तो अब मुझे याद नहीं है मगर उन्होंने उस पोस्ट को जिस फेसबुक खाते के साथ टैग किया था वो नाम था रुचा विजेश्वरी। वो बुकमार्क मुझे अंदर तक छू गया था। आख़िर चित्रकारी थी ही इतनी सुन्दर, उसने कविता की ख़ूबसूरती को और भी ज़्यादा बढ़ा दिया था, फिर मैंने रुचा विजेश्वरी की प्रोफाइल खोली, वहाँ कुछ थोड़ा बहुत उनके बारे में मूल जानकारियाँ पढ़ी, कुछ बहुत विशेष तो नहीं लगा, मूलतः सभी की होती हैं अपने बारे में वहाँ पर कि क्या पढाई की, कहाँ-से की वगैरह-वगैरह। फिर टाइमलाइन की ओर स्क्रॉल किया, वहाँ देखा मैंने उसी बुकमार्क की तरह कई सारे पोस्टर, जिन पर रूचा विजेश्वरी जी ने ऐसी ही चित्रकारी से अन्य लेखकों की कविताओं और पाक्तियों को सहेजा था, उनकी ये कलाकारी प्रतिभा मुझे उनकी प्रोफाइल की सैर कराते हुए उनके टाइमलाइन तक लाई थी। अब मुझे उनकी काफ़ी सारी पोस्ट उनके व्यक्तित्व का परिचय देने लगी थी, मन से आवाज़ आ रही थी कि लगता है चित्रकारी के साथ -साथ ये किताबें पढ़ना और लेखन कार्य करने की ख़ूब शौक़ीन हैं, और मन की इसी आवाज़ ने मुझे उनको 'फ्रेंड रिक्वेस्ट' भेजने के लिए धकेल लिया, अगले दिन सुबह उठी, 20 जून 2022 का दिन था, एक नोटिफिकेशन जिसमें था कि रुचा विजेश्वरी जी ने फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली। अब मैंने भी उनकी टाइमलाइन पर स्वरचित एक छोटी-सी स्वरचित कविता पोस्ट कर दी, जिस पर उन्होंने टिप्पणी की थी कि काफ़ी बेहतरीन लिखा है, मैंने भी धन्यवाद किया, बस आज सिलसिला यहीं रुक गया। वो तो हर रोज़ कुछ न कुछ पोस्ट करती रहती थी, तो मैं बस पढ़ती, देखती लाइक करती। कुछ दिनों क़रीब एक हफ़्ते तक ऐसा चलता रहा, फिर मैंने 28 जून 2022 को अब एक मैसेज हैलो भेज दिया, वहाँ से जवाब आया हैलो और साथ में अपना फोन नंबर दिया था कि इस पर मैसेज कर सकते हो, फेसबुक पर इनबॉक्स कम देखती हूँ और साथ में मेरा हाल पूछते हुए बताओ आप कैसी है? फिर मैंने जवाब देकर, उनका भी हाल पूछा लेकिन जिस तरह से उनकी प्रोफाइल से उनका मैत्रीपूर्ण व्याक्तित्व झलका था, मैं उनको मन ही मन दोस्त मान चुकी थी तो मुझे उनका आप बोलना थोड़ा खलने लगा। मैंने उनकी मूल जानकारियाँ पढ़ी थी तो मैं ये जानती थी कि मैं उम्र मे  महज 1 साल छोटी हूँ उनसे, बशर्ते मैंने उन्हें उनका हाल आप करके नहीं बल्कि तुम करके ही पूछा कि कैसी हो तुम? कहीं न कहीं मन में वो हमउम्र दोस्तों वाली ही भावना थी और फिर हाल पूछने के बाद मैंने ये कह भी दिया कि "आप करके ना बोलें, हमउम्र ही हैं।" मेरे ये कहने पर शायद उन्होंने भी मेरी प्रोफाइल से मेरी कुछ जानकारियाँ देख ली होंगी क्युकिं उनका मैसेज आया कि "वाह आप भी 7 की जन्मी हो" तो ये भी महज एक संयोग था कि हमारा जन्म तारीख़ का अंक एक समान है। ख़ैर इस सब के बाद हमारी फेसबुक पर कोई चैट नहीं हुई। मैंने व्हॉट्सएप पर उनको मैसेज कर लिया था, फिर आगे इसी पर हमारी बातचीत होती रही। मैंने रुचा विजेश्वरी जी से उनके बारे में कुछ बताने को कहा "कहाँ से हो, क्या करती हो?" यही सब तो उनका कहना था कि "उत्तरकाशी की हूँ किसी भी झोपड़े में रह लेती हूँ"। मुझे उनका इस तरह से कहना कुछ समझ नहीं आया, बस इतना समझी थी कि उनका इस तरह से जवाब देना, उनकी किसी भावना का रहस्य हो सकता है तो मैंने भी बस यही कहा कि "मैं कुछ समझी नहीं यार" मेरे भी मन में था तो पूछ ही लिया तो जवाब आया कि 'अरे ग़रीब हूँ ' फिर इस जवाब पर भी ज़्यादा कुछ संतोष नहीं मिला लेकिन उनकी इस बात में मुझे वो भावनाएँ नज़र आई जो ग़रीब तो नहीं मगर अंदर से कुछ बिखराव को व्यक्त कर रही थी परंतु अभी-अभी तो हमारी बातचीत शुरू हुई थी। मैं उनके बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जानती थी तो बेधड़क कुछ भी पूछ नहीं पा रही थी, अंदर ही अंदर लग रहा था कहीं बातों-बातों में, मैं उनके दिल को ठेस ना पहुँचा दूँ लेकिन उनका अपने लिए यूँ ग़रीब कहना भी मुझे डगमगा रहा था कि ऐसी बहु प्रतिभावान की धनी, अपने लिए ग़रीब बता रहे है, जो कि वास्तविक रूप से तो ग़रीबी क़तई नहीं है क्योंकि कहीं न कहीं मैं जानती थी कि जिस तरह से उन्होंने कहा कि ग़रीब हूँ, उसमें आर्थिक दृष्टि की भावना नहीं बल्कि एक प्रकार की नि:सहाय सी भावना थी इसलिए मैंने जवाब में कहा कि नहीं तुम ग़रीब बिल्कुल नहीं कह सकती हो ख़ुद को, अनेक कलाओं से तो अमीर हो तुम। फिर थोड़ा-बहुत मज़ाक में बातचीत होती रही तब उन्होंने कहा हमें भी बताओ क्या प्रतिभाएँ हैं हममें, मैंने भी उनकी कलाओं से वाक़िफ़ कराया कि इतनी जो अनेक प्रकार की गतिविधियाँ, क्रियाकलाप करती हो तुम लेखन, चित्रकारी के अलावा और भी कुछ, ये सब तुम्हारी कलाएँ ही तो है। इस तरह से जब बातें होती रही हमारी, निजी जीवन में भी कई बातों में एकरूपता थी हमारी। कुछ हद तक हमारी व्यावहारिक प्रवृत्ति में भी एकसमानता दिखी, बस फिर कभी-कभार कुछ मैसेज हमारे होते रहते थे। वो अक्सर मेरी लिखी कविताओं और पंक्तियों पर टिप्पणी किया करती थी। मेरी कविताओं पर कभी कुछ ऐसे जवाब दे देती थीं वो जैसे उनकी ही भावनाओं और हालातों को शब्द मिल गए हों। आख़िर किसी शब्द में छिपी भावना को हर कोई समझ भी तो नहीं सकता। अंततः एक दिन मैंने उनसे बोल ही दिया "मुझे तुम्हारी दास्ताँ सुननी है दोस्त" उनका जवाब आया "फ़ुरसत से सुनाऊँगी।" मैंने कहा "ज़रूर"।
पर, बाद में उनका जवाब आ गया कि "मेरी दास्तान तो बहुत दुखद है।" अपनी निजी ज़िंदगी के कई क़िस्से उन्होने मुझे बताए कि कई लोगों ने उनको तोड़ने की कोशिशें की, कैसे कई लोग उनका सहारा भी बने, इस तरह से कई सारी बाते हुई, फिर मैंने उनसे पूछा कि "क्या तुम गढ़वाली हो?" उन्होंने कहा "तुम्हें क्या लगता है?" मैंने कहा कि "मुझे लगता है तुम बचपन से गढ़वाल में ही रही हो, बाक़ी इससे ज्यादा सोचा नहीं।" इस पर उन्होंने कहा "तुम सही हो, अक्सर लोग मुझे साउथ की समझ बैठते हैं।" मैंने फिर से पूछ लिया "मूलत: भी गढ़वाली हो?" तो उनका जवाब था "हाँ कुछ ऐसा ही समझ लीजिए, जन्म यहीं गढ़वाल के गाँव में हुआ है, बचपन से गाँव में ही गढ़वाली परिवेश में पली बढ़ी हूँ, मैंने यहीं की संस्कृति को अपनाया है, मेरी जन्मभूमि ही यही है इसलिए मैं तो ख़ुद को गढ़वाली मानती हूँ और मैं किसी संस्कृति को अपनी पहचान बनाने के लिए मूल रूप से वहाँ का होना अनिवार्य नहीं समझती हूँ।" तब मैंने कहा कि "फिर तो गढ़वाली भी बोल लेती होंगी?" (क्योंकि जो गढ़वाली होते हैं, अक्सर मैं उनके साथ कभी-कभी चैटिंग में हिंदी के साथ-साथ गढ़वाली भी लिख लेती हूँ, तो पूछा था मैंने) लेकिन उनका जवाब था कि "नहीं बोलती हूँ।" उनका ना कहना थोड़ा अचम्भित करने वाला ज़रूर था क्योंकि जिस तरह से विभिन्न कलाओं को अपनाने का हुनर उनमें था तो  पर्वतीय क्षेत्रों में रहने के बावजूद गढ़वाली ना बोलना, ये रुचा जी का व्यक्तित्व नहीं था। फिर मैंने भी पूछ लिया कि "ऐसा क्यूँ?" और इस प्रश्न का जवाब सुनकर मैं स्तब्ध थी, मुझे यक़ीन नहीं हो रहा था कि वास्तव में ऐसा कुछ है। उनकी ये दास्ताँ काफ़ी दिल दहलाने वाली ज़रूर है मगर मुझे बहुत प्रेरणादायी भी लगी तो मैंने सोचा ऐसी शख़्सियत पर प्रकाश डालना अत्यन्त ज़रूरी है, जिनसे काफ़ी हद तक समाज शायद प्रेरित हो सकता है इसलिए आज मैं आप सबके साथ रुचा विजेश्वरी की कुछ मूल जानकारियाँ, उनके जीवन की अहम घटनाओं एवम क्रियाकलापों को साझा कर रही हूँ तथा इसके साथ ही उनका अपने मूल निवास गाँव में रहने के बावजूद भी अपनी क्षेत्रीय बोली ना बोल पाने का मुख्य कारण भी आगे स्पष्ट करूँगी। 

रूचा विजेश्वरी जी ने 7 अक्टूबर 1998 को उत्तराखण्ड राज्य के उत्तरकाशी जिले के बड़कोट क्षेत्र के एक पर्वतीय गाँव गडोली में जन्म लिया, जो मूलतः अब चिन्याली गाँव (चिन्यालीसौड), उत्तरकाशी की रहने वाली हैं। इनके पिता जी का नाम श्री विजय पाल एवं माता जी का नाम श्रीमती राजेश्वरी देवी है। रुचा विजेश्वरी जी का कहना है "हम माता-पिता के अंश का मिश्रण है" इसलिए उन्होंने अपने नाम रुचा के साथ 'विजेश्वरी' ( माता-पिता के नाम का संयोजन) जोड़ा हुआ है और उनकी ख़्वाहिश रही है कि जब भी उनका नाम कहीं पर आए तो रुचा विजेश्वरी ही आए। उनकी कुछ मूल जानकारियों के बाद मैं अब उस वार्ता को जारी करूँगी, जिसमें उन्होंने मुझे क्षेत्रीय बोली ना बोल पाने का कारण बताया था। मेरा रुचा जी से वो कारण पूछने पर उन्होंने मुझे बताया कि उनको सुनने में कुछ परेशानी रही है, जिस कारण वो भाषा का सही से उच्चारण नहीं कर पाई हैं, मैं ये सुनकर कुछ देर के लिए स्तब्ध हो गई। वास्तव में यक़ीन नहीं हो रहा था। मुझे उनकी पहले कही गई बातों में जो भावनाएँ नज़र आई थी, अब वो स्पष्ट हो रही थी। अंदर ही अंदर ग्लानि महसूस हो रही थी कि जाने अंजाने में मगर मैंने उनको ठेस पहुँचा दी है। अब मैं उनसे और भी प्रेरित हो चुकी थी। मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं उनकी परेशानी को गहराई से जान सकती हूँ अगर वो बताना चाहें तो मैं ज़रूर सुनूँगी। फिर उन्होंने मुझे अपनी तकलीफ़ के साथ-साथ अपनी उपलब्धियाँ भी बताई जिन्हें सुनकर बड़ी हैरानी हुई और ख़ुशी भी कि रुचा जी ने कभी अपने इस दर्द को अपनी कमज़ोरी बनने नहीं दिया। उनकी उपलब्धियों को जानने के बाद मैंने उनसे उनके बारे में और कुछ जानने की अनुमति ली। फिर उन्होंने बताया कि जब वो छोटी थीं 5 वर्ष की आयु में, जब तक वो अक्षरों के भी ज्ञान का अर्जन नहीं कर पाई थीं कि अचानक उन्हें अब कम सुनाई देने लगा था। शुरु-शुरू में उनकी ये अस्वाभाविक हो रही स्थिति का उन्हें तो पता नहीं चला मगर उनके माता-पिता अब समझ चुके थे कि उनकी ये छोटी सी बच्ची धीरे-धीरे अब सुनने की क्षमता खोने लगी है। इलाज के भी प्रयास तो किए गए मगर कुछ परिणाम ना मिला क्योंकि इसका एकमात्र इलाज मशीन ही था परंतु माँ को लोगों से ग़लत जानकारी मिली की अगर मशीन लगी और कभी मशीन खो गई तो रुचा जितना सुन भी पा रही है, होंठ पढ़ कर वो भी नहीं सुन पाएगी, तो माँ डर गई और फिर मशीन की न सोची। 
रुचा जी का कहना है कि जब उन्हें शुरुआत में समझ आया कि उनकी सुनने की क्षमता कम हो गई हैं तो वह बहुत हताश हो गई थी। स्कूल में भी वो सुन पाने में असमर्थ रहतीं, जिस वजह से वह बहुत रोती थीं लेकिन बढ़ते वक़्त के साथ रुचा जी ने ख़ुद का हौसला बन, हिम्मत बाँधकर स्वाध्याय शुरू किया। उनके माता-पिता और अध्यापकों ने भी उनका ख़ूब हौसला बढ़ाया। वो स्वाध्याय करती हुई आगे बढ़ती गई। स्कूल तो जाती थीं मगर स्कूल जाना एक तरह से औपचारिकता सी हो गई थी। स्वाध्याय एवं सुनने की असमर्थता से अंग्रेजी एवं गणित जैसे विषय उन पर भारी पड़ गए। इन विषयों में उन्हें परेशानी आने लगी, उनकी इस हालातों को देखकर उनके माता-पिता और अध्यापकों को रुचा जी का 10वीं कक्षा उत्तीर्ण करना भी मुश्किल लगता था लेकिन अंग्रेजी एवं गणित विषय में कमज़ोर होने के बावजूद भी उन्होंने सन् 2011 में बहुत अच्छे अंकों के साथ उन्होंने आसपास की 8 स्कूलों में टॉप पॉजिशन हासिल की। इनकी इस उपलब्धि पर वहाँ बधाइयों का ताँता लग गया। ये बधाइयाँ रुचा जी के हौसले को और ऊँचाई तक ले गई और उनके माता-पिता की हिम्मत को भी बढ़ावा दे गई। रुचा जी की होनहारी से पूरा क्षेत्र वाक़िफ़ हो चुका था। वह ग्यारवीं कक्षा में विज्ञान वर्ग में दाखिला लेना चाहती थीं। रसायन विज्ञान में उनकी बहुत रुचि थी, यह उनका प्रिय विषय था मगर श्रवण क्षमता की कमी उन्हें विज्ञान वर्ग में दाखिला ना मिलने का यहाँ कारण बन गई। जबरन कला वर्ग में धकेल दिया गया। कहीं न कहीं अब उन्हें अपनी इस कमी का अहसास हुआ पर उन्होंने इस कमी को कमज़ोरी बनने दिया नहीं, मन लगाकर फिर स्वाध्याय शुरू किया। कक्षा में क्या पढ़ाया जा रहा वो समझ नहीं पाती थी मगर इस सबके बावजूद भी उन्होंने ग्यारवीं कक्षा में भी प्रथम स्थान हासिल किया और बारवीं कक्षा में भी फिर से उत्तम अंको के साथ स्कूल में टॉप पोजिशन हासिल कर ली। अब हौसलों ने एक बार फिर उड़ान भर ली थी, जिनके परिणामस्वरूप 2014 में उत्तराखंड के तत्कालीन शिक्षा मंत्री जी द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया था। इसके अलावा उन्होंने अंबेडकर मेरिट अवार्ड भी प्राप्त किया है। रुचा जी का मानना है कि उनकी विद्यालयी शिक्षा के दौरान, राजकीय बालिका इन्टर कॉलेज चिन्यालीसौड़ के शिक्षकों ने उनके हुनर को समझा, जिससे उनका आत्मविश्वास और ऊपर बढ़ता गया और वो पढाई में निरंतर आगे बढ़ती रहीं। इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात उनकी माँ चाहती थी कि बेटी को अच्छी शिक्षा मिले तो उन्होंने स्नातक की पढ़ाई के लिए बादशाहीथौल टिहरी भेज दिया। वहाँ जाकर एस॰आर॰टी॰ कैंपस, बादशाहीथौल, चम्बा, टिहरी से उन्होंने इतिहास, राजनीति-शास्त्र और कला विषयों से स्नातक किया। रुचा जी का कहना है कि ये कॉलेज उनके जीवन का सबसे बेहतरीन कॉलेज है जहाँ के पूरे टीचर-स्टाफ, डायरेक्टर सर ने ख़ूब स्नेह दिया और हौसला देकर आगे बढ़ते रहने के लिए प्रेरित किया। ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद उन्होंने हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय, बिडला परिसर, श्रीनगर गढ़वाल से 'ड्राइंग' विषय से मास्टर किया, उसके पश्चात उन्होंने श्रीमती मंजीरा देवी शिक्षण एवं प्रशिक्षण संस्थान हितानु, धनारी, उत्तरकाशी से बी॰एड॰ किया और आगे पीएचडी/ नेट की तैयारी करने के लिए देहरादून आ गईं।
रुचा जी ने अपने जीवन में समस्त ज्ञान स्वयं किताबें पढ़कर ही ग्रहण किया। कॉलेज के दौरान भी वो अपना अधिकतम समय पुस्तकालय में ही व्यतीत किया करती थीं। किताबें पढ़ने में उनकी बहुत रुचि रहती थी, आख़िर यहीं किताबें उनके जीवन का मार्गदर्शक थी और सबसे अहम हिस्सा भी। अब वो पाठ्यक्रम के साथ अन्य पुस्तकें भी पढ़ने लगी। उन्हें जहाँ कहीं भी कोई नई पुस्तक दिखती या किसी नई पुस्तक के बारे में पढ़ने को मिलता तो उसे कहीं से ढूँढ़-खोज कर पढ़ने का प्रयास करती और किताबों से इतना लगाव होने की वजह से ही अभी तक उनके पास एक हज़ार से ज्यादा पुस्तकों का संग्रह है जिनमें से उन्होंने काफ़ी पुस्तकें पुस्तक पढ़ने वाले शौक़ीन लोगों में वितरित कर दी हैं। पुस्तकों को पढ़ने के अलावा रुचा जी कई क्षेत्रों में अग्रणी रही हैं, बहुत ख़ूबसूरत चित्रकारी करती हैं। उनके बनाए पोस्टर, बुकमार्क उनकी बेहतरीन कला का परिचय देते हैं। इसके साथ-साथ रुचा जी अनेक विषयों पर वॉल पेंटिंग भी करती हैं। देहरादून में अनेक जन आंदोलनों में रुचा जी के पोस्टर ही महत्वपूर्ण होते हैं। इनके बनाए पोस्टर, आंदोलनों के मुद्दे को आसानी से स्पष्ट कर देने वाले होते हैं। ये बच्चों को नि:शुल्क पेंटिंग प्रशिक्षण देती हैं। इन विभिन्न कलाओं के साथ-साथ रुचा जी सामाजिक समस्याओं पर नुक्कड़ नाटक भी लिखती हैं और स्कूली बच्चियों के साथ मिलकर उनका मंचन करवाती हैं। जब मुझे मालूम हुआ तो मैंने उनसे पूछा नुक्कड़-नाटक का मंचन करवाने के पीछे क्या 
विचार हैं? उन्होंने बताया कि कभी कहीं पढ़ा था नुक्कड़ नाटक सार्वजनिक स्थानों पर किए जाते हैं और कोई न कोई सामाजिक संदेश देते हैं तो तब से एक उनके मन में आया कि इन नुक्कड़ नाटकों से बच्चों में सीखने की प्रवृत्ति तीव्र होगी साथ ही समाज को नुक्कड़ के ज़रिए हम हर मुद्दे/समस्या के कारण व समाधानों को बताकर जागरुक करेंगे,परिणाम मिले या नहीं लेकिन अपनी ओर से प्रयास करेंगे ही। साथ ही बच्चों की प्रतिभा और कल्पना-शक्ति को  बढ़ावा मिल पाएगा। उन्हें हर नई-नई चीज़ें सीखनें व करने को मिलेगी। अलग-अलग विषयों पर चर्चा करने से भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में ज्ञान अर्जित कर पाएँगे। आजकल रुचा जी अपने गाँव में गाँव के ग़रीब बच्चों के लिए निःशुल्क आर्ट कैम्प चला रही है। 2019 से रुचा जी नि:शुल्क प्रशिक्षण दे रही हैं। इसके अलावा 2019 में ही उन्होंने एक समूह बनाया जिसका नाम "पंखुड़ी यूथ आर्टिस्ट ग्रुप" रखा गया। इसमें रुचा जी के साथ मुख्य कलाकार के तौर पर हरीश सेमवाल हैं और उनकी टीम के अन्य सदस्य राजेश रावत, जशबीर रागड़ और रिनिका धस्माना हैं। इस समूह का मूल उद्देश्य रोज़गार है। उनका मानना है कि अक्सर पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत से कलाकार/चित्रकार अपनी प्रतिभा को एक सही दिशा निर्देशित नहीं कर पाते हैं अधिकांशत: महिलाएँ पुरूषों की अपेक्षा बाहर काम नहीं कर पाती हैं तो ये समूह ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं चित्रकारों को उनकी प्रतिभा दिखाने के अवसर देगा एवं इसके साथ ही रोज़गार भी प्रदान करेगा। जहाँ महिलाएँ स्वतंत्र एवं संगठित रूप से अपनी प्रतिभा से काम कर अपने लिए रोज़गारी व्युत्पन्न कर सकती हैं। समाज में कुछ ऐसी मानसिकताएँ हैं जो आज भी महिलाओं को पुरुषों के साथ काम करने के लिए हतोत्साहित करती हैं और साथ ही समाज की एक प्रमुख समस्या है, महिलाओं की असुरक्षा जो कि महिलाओं का कहीं भी स्वतन्त्र रूप से कार्य न कर पाने का मुख्य कारण है। अत: इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए रुचा जी ने इस समूह को गठित किया है, इनका यह समूह अभी बहुत बढ़ा नहीं है लेकिन उनका मानना है कि परिणाम जो भी हो, पहल तो कर ही सकते हैं। उनका मुख्य ध्येय यही रहा है कि ख़ुद भी कुछ सीखूँ और दूसरों को भी सिखाऊँ। रुचा जी के अनुसार शिक्षकों और परिजनों ने तो हर क़दम पर साथ दिया ही मगर उनके साथ ही रुचा जी के जीवन में कई और भी लोग आए जिन्हें वो कभी नहीं भूलती हैं, जब भी रुचा जी के बारे में बात हो। उनमें से एक हैं अतुल सिंह जो कि उनके बहुत अच्छे दोस्त हैं, इन्होंने हमेशा क़दम-क़दम पर रुचा जी का साथ दिया है, वो बताती हैं कि जब भी कोई काम करती हैं तो पहले एक बार अतुल जी से सुझाव ज़रूर लेती हैं। ऐसे ही रुचा जी ने पंकज अग्रसर के बारे में भी कहा "इनके लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं बस इतना ही कहूँगी आज मैं मज़बूती से जहाँ खड़ी हूँ, इनकी ही बदौलत है।"
रुचा जी एक एक सामाजिक मानसिकता की नेक विचारों वाली सेविका है। उन्होंने बताया कि जब वो बारवीं में पढ़ती थी तो तब से उन के दिमाग़ में विचार है कि जिस दिन पूरी तरह से आत्म-निर्भर बन जाऊँगी एक बेटी गोद लूँगी। शादी के कुछ प्रस्ताव आए मगर रुचा जी की बेटी गोद लेने की इच्छा ज़ाहिर करने पर मना कर दिया गया। वो कहती हैं कि मैं शादी नहीं करना चाहती क्योंकि कोई भी ऐसा प्रस्ताव नहीं आया जो बच्ची गोद लेने को हामी भरे बल्कि मुझे ही पागल कहा गया, मेरी इस ख़्वाहिश को सामने रखने पर। रुचा जी सोचती हैं हमें उन बच्चों के माता-पिता बनने की ज़रूरत है जिन्हें माता-पिता का स्नेह नहीं मिल पाता और आज के ज़माने में तो चाहे जन्म दिया बच्चा हो या गोद लिया हुआ, जिन बच्चों को माँ-बाप के प्रति फ़र्ज़ अदा करना होगा वो करेगें ही। रुचा जी नेक विचारों के साथ-साथ हर मुक़ाम पर खड़े होने का जज़्बा रखती हैं, इनकी ख़ूबियाँ समाज में जागरूकता उत्पन्न करने में मददगार सिद्ध हो सकती हैं। मैं सोचती हूँ दुनिया में ऐसे कई सारे बच्चे और अन्य लोग हैं जिनको आगे बढ़ने के लिए रुचा जी जैसे लोगों की प्रेरणा की आवश्यकता है। अत: उनकी प्रतिभा और क्रियाकलापों पर प्रकाश डालने का मुख्य उद्देश्य मेरा यही था कि विशेषत: समाज में कई सारे दिव्यांग बच्चों मे जागरूकता लाने की ज़रूरत है, जिसके लिए रुचा जी जैसे गहन सामाजिक विचारधारा वाले लोग समाज में दिव्यांगों को उत्साहित कर उनको नई दिशा देने में मदद कर सकते हैं।

दिव्या बिष्ट 'दिवी' - देहरादून (उत्तराखंड)

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