ख़ुद के लिए जिओ - कविता - नृपेंद्र शर्मा 'सागर'

कभी ख़ुद के लिए जी कर देखो,
ज़िंदगी शायद रास आ जाए।
अभी जो बहुत दूर लगती हैं,
शायद वे ख़ुशियाँ पास आ जाए।

मुमकिन है मिट जाएँ उदासी के घेरे,
हँसी की कुछ बहार छा जाए।
कभी ख़ुद के लिए जीकर देखो,
ज़िंदगी शायद रास आ जाए।

नाज़ नखरे उठाते हो सबके,
फिर भी तिरस्कार ही क्यों पाते हो।
माना ये ज़िम्मेदारियाँ हैं अपनी,
इन्हें बोझा से क्यों उठाते हो।
थोड़ा सा उनको भी निभाने दो,
शायद रिश्तों की समझ जाए।

कभी ख़ुद के लिए जीकर देखो,
ज़िंदगी शायद रास आ जाए।
अभी जो बहुत दूर लगती हैं,
शायद वे ख़ुशियाँ पास आ जाए।।

नृपेंद्र शर्मा 'सागर' - मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश)

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