तू जीवन की वो स्मृति है
जिसकी विस्मृति भी स्मृति है।
इन नयनों के सजल सिंधु में
तू ही सुंदर सरल कृति है।
दृग जल तेरे अनुयायी हैं
तू ही इनकी प्रत्याशा है।
प्राण पुलक की बंधी डोर तू
तू ही इनकी परिभाषा है।
अर्द्ध रात्रि स्वप्निल बेला में
सहसा मन में तू आती।
मेरे द्रवित हृदय में तू ही
मलय पवन बन छा जाती।
तेरा हर स्वर चित्रहार है
और तेरा है प्रेम शाश्वत।
श्वासों का चलना भी तुझसे
तू ही है रोली-अक्षत।
अधर हुए हैं मौन किन्तु यह
मन मेरा विक्षिप्त नहीं।
मन स्मृतियों को ढूँढ़े ये
विस्मृतियों में लिप्त नहीं।
तेरा आना जाना तय था
किन्तु तेरी छवि ही अनुकृति है।
तू जीवन की वो स्मृति है
जिसकी विस्मृति भी स्मृति है।
राघवेन्द्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)