गाँव की होली - कविता - नृपेंद्र शर्मा 'सागर'

बहुत याद आती है वह गाँव की होली,
रात को निकलती थी जब यारों की टोली।

होली का ईंधन कुछ इस तरह जुटाते थे,
जो ज़्यादा सहेज कर रखते थे उन्ही की लकड़ियाँ उठाते थे।

सुबह फिर होती थी गालियों की बौछारें,
ऐसा लगता था जैसे बरस रही हों फागुन की फुहारें।

कभी कभी तो ऐसा कर जाते थे,
गालियाँ सुनने के लिए जान बूझकर उधर जाते थे।

पहले से ढूँढ़ लेते थे कौन किस चीज़ से चिढ़ता है,
फिर उनके दरवाज़े पर घीया और बैंगन बाँध कर चिढ़ाते थे।

फिर जिस प्रसाद के लिए ये सब करते थे,
वह गालियों का प्रसाद भरपूर पाते थे।

होली वाले दिन के लिए कुछ ख़ास रंग बनाते थे,
ज़्यादा पक्का करने के लिए हल्दी में चूना मिलाकर पकाते थे।

आलू काटकर ठप्पे बनाते थे,
फिर उनपर लोगों की चिढ़ गोदकर उनकी पीठ पर मोहर लगाते थे।

क्या लौट कर आएँगे वह दिन जब होली टोली में मनाते थे।
होली के बहाने हर छोटे बड़े से प्रेम का रिश्ता निभाते थे।।

नृपेंद्र शर्मा 'सागर' - मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश)

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