सुना दो जो सुनानी हो तुम्हारी बात काफ़ी है - ग़ज़ल - प्रशान्त 'अरहत'

अरकान : मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
तक़ती : 1222 1222 1222 1222

सुना दो जो सुनानी हो तुम्हारी बात काफ़ी है,
गुनाहों की सज़ा मेरे, यही हज़रात काफ़ी है।

ज़माने में नहीं कुछ बस तुम्हारा साथ हो फिर तो,
बिताने को अवध की शाम, ये सौग़ात काफ़ी है।

इरादा है अभी मेरा क्षितिज तक साथ चलने का,
रहे हाथों में मेरे बस तुम्हारा हाथ काफ़ी है।

ज़रूरत ही नहीं अनुबंध पत्रों की मुझे तो अब,
कही जो बात है मैंने मियाँ वो बात काफ़ी है।

हमेशा याद आएगी मुझे हर पल तुम्हारे बिन,
गुज़ारी थी गुज़िश्ता साल जो, वो रात काफ़ी है।

किसी के दिल में अपना घर बनाने के लिए जानाँ,
नफ़ासत और सदाक़त से भरा जज़्बात काफ़ी है।

सफ़र काँटों भरा हो या कि हों फूलों भरी राहें,
किसी को भी गिराने के लिए हालात काफ़ी है।

मुहब्बत में अलग करने पे आमादा ज़माना है,
नहीं कुछ और बस इनके लिए तो जात काफ़ी है।

प्रशांत 'अरहत' - शाहाबाद, हरदोई (उत्तर प्रदेश)

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