क्या बतलाएँ आज तितलियाँ
किस-किस से रंजिश है?
कैसे आएँ ऋतुराज जहाँ,
क़दम-क़दम बंदिश है।
धुँध मूँद कर व्योम वातायन, नित्य रास करती है,
शीत भीत निरुद्ध रवि किरणें, क्षुधा-प्यास सहती है।
विहग डाल से विलग पात पर, बरफ़ीले आघातें,
दुबकी कलियाँ द्रुम-ग्रीवा में सहे पौष सी रातें।
ओस, जोश भरने के बदले हरे होश, घासों के
माघ-निशि में उमड़ा सर्द नद फेंक रहा ज्यों फाँसें।
प्राकृतिक अनुराग घेरे में,
निमिष-निमिष फ़ासिल है,
कैसे आएँ ऋतुराज जहाँ,
क़दम-क़दम बंदिश है।
कलरव नत कोलाहल चंचल दबे सुधामय अक्षर,
हैं अनंग अवरुद्ध, ताल सुर रूद्ध अष्ठ-यामी स्वर।
तार-सप्तकों पर बजती हैं पश्चिम-राग की धुनें,
प्रियतम भूली कहीं कोकिला, पिया पपीहा भूले।
गमलों में पौधे तन-बौने, रुक्ष हृदय-मन-यौवन,
मरुवन छज्जे पर साजन घर बोल रहें है-मधुवन।
सरस प्रीत रस, विकल विहग सुर,
दोऊँ पर अंकुश है।
कैसे आएँ ऋतुराज जहाँ,
क़दम-क़दम बंदिश है।
शठी स्वार्थ में उलझा है नर, स्वप्न जीत उपवन का,
नयन मस्त औ' उदर तृप्ति की चाहत में मद रत सा।
स्वर्ण मुकुट नभ-महल हवेली, टकसालों से ख़ुशियाँ,
क्रयित हो जाती क्षण मात्र में सृजित स्वार्थ की दुनियाँ।
छींट अतर झट महक गुलाबी पिय पा जाते प्यासे,
"मदनोत्सव" न्योता नभ को अब जाए क्यों वसुधा से?
हृदगत चाहत आहत, आतिथ्य,
पर अतथ्य दबिश है।
कैसे आएँ ऋतुराज जहाँ,
क़दम-क़दम बंदिश है।
पंकज कुमार 'वसंत' - मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार)