ज़िंदा हो तो नज़र आओ - कविता - जयप्रकाश 'जय बाबू'

ज़िंदा हो?
ज़िंदा हो! तो नज़र आओ।
आँखें चार करो नज़र मिलाओ,
ज़िंदा हो?
ज़िंदा हो! तो नज़र आओ।

बचपन के संग खिलखिलाना,
बूढ़ों का दर्द बन जाना,
बिन उम्मीदों वालों के घर कोई
तुम आशा दीप जला जाना,
मायूस थकी सी है तरुणायी
कभी उनको भी राह दिखाओ।
ज़िंदा हो?
ज़िंदा हो! तो नज़र आओ।
आँखें चार करो नज़र मिलाओ,

बीत न जाना सूनापन लिए,
आँखों में पतझड़ सा,
खिलखिलाना तुम बन ऋतुराज
मन में लिए अलहड़ता,
अभिसिंचित तन-मन करने को,
कभी बन पुरवाई लहर जाओ।
ज़िंदा हो?
ज़िंदा हो! तो नज़र आओ।
आँखें चार करो नज़र मिलाओ।

घर-आँगन खेत खलिहान
सब है तेरे ख़ुशियों के नाम,
इनमे भर के ख़ुशबू अपनी
दे दो उनको अभय दान,
ख़ामोश सी है चारों दिशाएँ,
बन सावन रिमझिम आओ।
ज़िंदा हो?
ज़िंदा हो! तो नज़र आओ।
आँखें चार करो नज़र मिलाओ।

चंचल सखी सरीखी,
मन को कुछ ऐसे सहला देना।
धुल जाए सभी के मन से,
विषाद का हर कलुषित कोना।
इन होठों पर बनके गीत कोई
मधुकर सा गुनगुना जाओ।
ज़िंदा हो?
ज़िंदा हो! तो नज़र आओ।
आँखें चार करो नज़र मिलाओ।

जयप्रकाश 'जय बाबू' - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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