सुबह का मुख - कविता - कर्मवीर सिरोवा 'क्रश'

जनवरी की ये भीगी-भीगी शबनमी सहर,
ये कड़कड़ाता, ठिठुराता और लुभाता मौसम,
ये बहती सर्द और पैनी हवाओं की चुभन,
इस पर तिरा ज़िक्र-ए-जमील,
ज़ेहन के खेतों में 
सरसों के फूलों के 
सब्ज़ रूप की तरह हैं,
जो मुझें तुझसे मिलने को 
बैचैन करती हुई आतुर करती हैं।
तिरे सिकुड़ते लबों की 
नरमी के स्पर्श से 
जवाँ होती धुँध 
चहुँदिश ग़ज़ब ढा रही हैं,
मिरी कैफ़िय्यत का मत पूछो, 
तिरे बिना रूह के हर क़तरे में 
तन्हाई की बस्ती हैं।
शब रानी के खुले केशों से 
बहती सर्द हवाएँ 
उसके झीने दुपट्टे में छनकर आती हैं,
और तरन्नुम में तिरा नाम गाकर 
मुझें हिज़्र की आग से जलाती हैं।
आसमाँ के घर में 
रात के सोने के बाद 
रात की सबसे ख़ूबसूरत बेटी 'सुबह' 
जब धौरों के पीछे से
चुपके से
धीरे-धीरे 
अपना उजला, चमकता मनभावन चेहरा 
निकालती हैं,
मिरी आँखें जब सुबह का 
ये अपार सुंदर मुख देखती हैं, 
ख़ुदा की इनायत से
'क्रश' की छवि पाकर 
कवि की दुनिया 
रौशन हो जाया करती हैं।

कर्मवीर सिरोवा 'क्रश' - झुंझुनू (राजस्थान)

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